Last modified on 18 जून 2014, at 12:53

दुख / मदन कश्यप

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:53, 18 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन कश्यप |अनुवादक= |संग्रह=दूर तक ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दुख इतना था उसके जीवन में
कि प्यार में भी दुख ही था

उसकी आँखों में झाँका
दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था

उसे बाँहों में कसा
पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा

उसे चूमना चाहा
दुख होंठों पर पपड़ियों की तरह जमा था

उसे निर्वस्त्र करना चाहा
उसने दुख पहन रखा था
जिसे उतारना सम्भव नहीं था ।