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लोटा / प्रेमशंकर शुक्ल

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यही है जिसके पानी को
खेत-खलिहान से लौट
ओसरिया के डेहरौते पर बैठ
गटागट पी जाते थे बाबा
यही हाल पिता का रहा

अब घर में इतने बड़े लोटे से
कोई नहीं पीता पानी
उस तरह से अब खेत-खलिहान से कोई
घर भी कहाँ लौटता है !

बैशाख के मेले से
बाबा ने ही ख़रीदा था
काँसे का यह लोटा
इस लोटे के मुँह पर
बाबा के होंठ के निशान हैं
पिता के भी

लगता है हर घर में
पिता का कोई न कोई लोटा
ज़रूर होता होगा
जिस पर दर्ज होंगे होंठों के
अनन्‍त निशान
और थोड़ा आँख गड़ाकर देखा जाय
तो मिल सकता है उस पर प्‍यास का आद्यन्‍त वृत्त्‍ाान्‍त

एक समय पानी से छलकता हथेली पर
रहता था यह लोटा
लेकिन एक कोने में पड़ा दिखता है अब यह पूरा उदास
जब इसे माँ माँज देती है
जी उठती है इसकी धातु

संस्‍कृत भाषा की तरह काम-प्रयोजन पर
यदा-कदा होता है इसका ज़रूर इस्‍तेमाल
लेकिन अधिकतर यह पानी के ख़्वाब में
पड़ा-पड़ा धूल पीता रहता है

भूसी से माँजकर पत्‍नी ने चमकाया
आज फिर इसका अन्‍तस्‌-बाह्‌य
और दिया मुझे इसी लोटे में
लरजता-हँसता नीर
लेकिन पता नहीं क्‍या है मेरे भीतर
कि उठाते से ही यह लोटा
काँप रहे हैं मेरे हाथ और होंठ !

लोटे में तीन पीढ़ियों का वजन है !!