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चांदनी रात / नेमिचन्द्र जैन

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चांदनी रात है--

किसी अबोध कुमारी के सरल नैनों-सी

अथाह भेद भरी गीली...

अलस वसन्त की अनुराग भरी गोद

खुली फैली है

मौन सुधियों के राजहंस दूर-दूर उड़े जाते हैं...


चांदनी रात का सुनसान

है फीका-फीका

गन्ध के भार से सन्त्रस्त-सी वातास

है उन्मत्त काटती चक्कर

रुद्ध पथभ्रष्ट और विक्षिप्त

वासना-सी अतृप्त...

कहीं पे दूर कभी रुक-रुक कर

किसी के प्यार भरे गीत के टूटे-से स्वर

भूल से जाग कर

मानो तभी सो जाते हैं ।


चांदनी रात है चुपचाप समर्पित

मोहित

अचल दिगन्त के आश्लेष में

सोई

खोई अबूझ स्वप्न में,

जैसे तुम ही कभी

चुपचाप अनायास

मेरी गोद में सो जाती हो...

चांदनी रात ओ !


(1946 बरुआसागर में रचित)