Last modified on 4 जुलाई 2014, at 15:19

साल 1984 / अंजू शर्मा

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:19, 4 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंजू शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=कल्प...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कुछ तारीखें, कुछ साल अंकित हो जाते हैं
आपकी स्मृति में,
ठीक उसी तरह जैसे महिलाएं याद रखा करती थीं
बच्चों के जन्म की तारीख, सालों के माध्यम से,
बडकी जन्मी थी
जिस साल पाकिस्तान से हुई थी लड़ाई,
लगत पूस की तीज को,
या मुन्नू जन्मा था जिस साल
इंदिरा ने लगायी थी इमरजेंसी
उतरते आसाढ़ की तेरस को,

साल 1984 याद आता है मुझे बेसाख्ता,
साथ ही चली आती हैं रेल के डिब्बों की तरह
वे तमाम यादें जो वाबस्ता थी उन अंकों से,
पुराने चावल, पुरानी शराब और पुराना वक़्त
हर गुजरते लम्हे के साथ,
जो कभी महक उठती हैं पुरानी किताब में रखे सूखे गुलाब सी
तो कभी कांटे सी चुभ जाती हैं
यादों के आईने में एक चलचित्र सा गुजरता यह साल
कभी भी उन यादों को धूमिल नहीं होने देता,
और जिंदगी की किताब के वर्क उलटता समय
अक्सर यहाँ आकर स्थिर हो जाया करता है,
  
माँ से विरासत में मिली चुप्पी और अवसाद से
उबरने का था वह साल,
पिता द्वारा अबोध आयु में ही पाए संघर्षों के भंवर में
गले तक उतरने का था वह साल,
हर रोज़ किरचे किरचे हो जाया करता था, वक़्त के थपेड़े खाया
शीशे सा नाजुक मेरा नन्हा आत्मविश्वास,
रोज़ संजोते हुए उसे हो जाया करती थी मैं हर रोज़
कुछ और बड़ी, कुछ और समझदार,
उस एक साल में समझदारी के थोपे गए नए रास्तों पर
चलते हुए मैंने जाना था,
दुनियादारी, किताबों से लगभग बाहर
की कोई शय है,

मेरा बस्ता, उन दिनों, कुछ और भारी होने लगा था,
लाईब्ररी में दोस्त बने प्रेमचंद और गोर्की को अक्सर
बतियाते हुए, घर तक साथ लाने का साल,
तब अक्सर कौतुहल थामे रहता था मेरी ऊँगली,
मेरा पेन बनता जा रहा मेरी ज़बान
और मेरी डायरी के रंगे पन्नो की संख्या अब रोज बढ़ने लगी थी,
खुल रहे थे रोज़ जानकारियों के नए वातायन,
मेरे घर का अख़बार अब अक्सर शाम तक पुराना हो जाता था,
पड़ोस में चलने वाली राजनीतिक बहसों ने
पा लिया था एक नन्हा गूंगा श्रोता,
और याद आता है मुझे कविता से मेरी दोस्ती का वह साल,

उसी साल जबरन दोस्ती करने को आतुर एक किशोर द्वारा
अक्सर मेरे घर के चक्कर लगाने पर
बचपन और कैशोर्य की दहलीज़ पर असमंजस में
पड़ी मैं, हाथ में लिखकर निकलती थी घर से "मुझे डरना नहीं है",
उसे देखते ही भिंच जाया करती थी मेरी मुट्ठी और जबड़े,
तमाम ललचाती पगडंडियों को अनदेखा कर
गुजरते हुए यथार्थ के धरातल पर
फूंक फूंक कर कदम रखने का था वह साल,

उस साल से ही वाबस्ता है वे सभी अनचाही यादें,
मेरी अविकसित सोच को
प्रदान करते हुए पुख्ता वैचारिक धरातल,
जो आज भी धुंधली सी बसी हैं मेरे अवचेतन में,
पढ़ते हुए "द लेम्ब एंड द वोल्फ' उभर आते थे अक्स
शीतयुद्ध के नाम पर, युद्ध करने को बहाना ढूँढती,
दो महाशक्तियों के अप्रत्यक्ष टकराव की ख़बरों के,
रेगन और गोर्बाचेव के अहम् के बीच पेंडुलम सी झूलती
तीसरी दुनिया की एक बच्ची रोज काला करती थी
कुछ पन्ने शांति के नाम पर,

नोस्त्रदेमस की अपुष्ट सी भविष्यवाणियों को
मिलाते हुए घटनाओं, दुर्घटनाओं और उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त से
मैंने झेला था आघात ३१ अक्टूबर का,
डिक्शनरी में ढूँढ़ते हुए अर्थ सुरक्षा का,
भय से कांपती मैं नहीं सो पाई थी ठीक से, अगली १३ रातों तक,
मारो-काटो की आवाज़ों के बीच धूं-धूं कर जलती जिन्दा लाशें
जैसे छा गयीं थी मेरे वजूद पर,
लकवे से पीडित मेरी अर्धविकसित सोच,
धीरे धीरे भरते हुए लड़खड़ाते कदम,
अक्सर हो जाया करती थी अचेत,
मैंने जाना था रेट रटाये आदर्शों से अलग, जिंदगी नहीं चलती है
कभी तयशुदा रास्तों पर,

साम्राज्यवाद का निवाला बने एक देश के
लगभग अनजाने से शहर में,
कालरात्रि लील गयी थी चैन से सोयी १५००० जानें,
लोग कहते थे मौत के नंगे तांडव का कारण थी
मिथाइल आइसो साइनाइड गैस,
नहीं जानते थे अवसरवाद, स्वहित में किये गए समझौते
और कागज़ी साजिशें,
मिलकर मुआवज़ें के फेंके चंद टुकड़ों के साथ,
हर रोज़ लिखा करते थे एक नयी इबारत
अचानक आबाद हुए शहर के कब्रिस्तानों में,
लगभग अंधे हो गए थे कई दशक,
लोग कहते हैं मौत आज भी वहां दबे पाँव सैर किया करती है,
उस साल बर्बाद हुई नस्लों ने सुखा दिए थे आंसू मासूम दो आँखों से
और भोपाल का नाम अक्सर पैदा कर देता था
मेरी रीढ़ में एक अनचीन्ही सी सिहरन,

साल आते रहे, साल जाते रहे
किसे याद है कि राकेश शर्मा ने रचा था उस साल इतिहास अन्तरिक्ष में,
कौन याद रख पाया चौपालों की उस बहस को
कि कितना जरूरी था ओपरेशन ब्लू स्टार
जिसने ठोंक दी थी कितने ही सीनों पर दर्द की कीलें,
कौन गिनता है कि कितने सिख बदल गए थे राख के ढेर में,
कितने झौक दिए गए थे
विस्थापन की आग में,
या भुखमरी के क्रूर राक्षस ने निगल ली थी
कितनी ही जानें उस एक साल यूथोपिया में,
और कितने तमिल युवा ओढ़ रहे थे खाल उस वक़्त मुक्ति चीतों की,
मेरी यादों में अमिट गढ़ा है मील के पत्थर सा ये साल
और अब, जबकि फेल हो गए हैं उसे भूल पाने के सारे उपक्रम,
मैं सोचती हूँ, क्या कभी धूमिल हो पायेगा यह साल मेरी स्मृतियों से
जो छोड़ गया था दर्द की जाने कितनी ही लकीरें,
शायद कभी नहीं, शायद कभी नहीं...