भाषाएँ टकराती हैं
चट्टानों से भी
जीवन ले कर या दे कर
दो ही पद
तुलते हैं जिह्वा पर
जो जानी अनजानी धारा में
कुछ अपने लगते हैं
डगमग नैया खे कर
किन किन चेहरों की
क्या क्या मुद्रा
कब कब क्या दे गई झलक दे कर
जब तब हम कुछ आपा पाते हैं
कहीं किसी को से कर