कभी तिलोचन के हाथों में पैसा धेला
टिका नहीं । कैसे वह चाय और पानी का
करता बन्दोबस्त । रहा ठूँठ-सा अकेला ।
मित्र बनाए नहीं । भला इस नादानी का
कुफल भोगता कौन । यहाँ तो जिसने जिसका
या, उसने उसका गाया । जड़ मृदंग भी
मुखलेपों से मधुर ध्वनि करता है । किसका
बस है इसे उलट दे । चाहो रहे रंग भी
हल्दी लगे न फिटकरी, कहाँ हो सकता है ।
अमुक-अमुक कवि ने जमकर जलपान कराया,
आलोचक दल कीर्तिगान में कब थकता है ।
दूध दुहेगा, जिसने अच्छी तरह चराया ।
आलोचक है नया पुरोहित उसे खिलाओ
सकल कवि-यश:प्रार्थी, देकर मिलो मिलाओ ।