फागुन आया
फागुन के संग आया है ऋतुराज
हाथों में पुष्पांजलि लेकर
खड़ा हुआ वन आज ।
राजा की अगवानी है
मामूली बात नहीं
वे भी पौधे फूले दम भर
जिनकी ज़ात नहीं ।
चार दिनों का सिंहासन भी
बड़ा नशीला है
बाँट रहे सबको अशर्फ़ियाँ
बड़े ग़रीब-नवाज़ ।
गोद हिमालय की हो
या हो विंध्य पार का गाँव
कोयल का स्वर एक रंग है
ज्यों ममता की छाँव ।
गंगातट की अमराई से
कावेरी तट के
झाऊवन तक एक प्रेम की
भाषा का है राज ।
मारे गए हज़ार बोलियाँ
बोल-बोल कर आप
दरका हुआ दर्प का दर्पण
धन है या अभिशाप !
यहाँ-वहाँ के तोता-मैना
बतियाते खुलकर
तरस गया सुख-दुख बतियाने को
यह सभ्य समाज !