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पुरुष / रचना त्यागी 'आभा'

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वाह पुरुष, क्या जीव है तू
स्वप्न में बजते मृदंग!
झूमता ऐसे नशे में
ज्यों लहू में बहती भंग!

अनगिनत हैं रूप तेरे,
अनगिनत तेरे हैं रंग
तू किसी को देव है, तो
है किसी को तू भुजंग!

हृष्ट-पुष्ट है देह, तो क्या?
मानसिकता पर अपंग!
संशय की भीतर ही भीतर
खुद रही गहरी सुरंग!

अट्टहास है लब्धियों पर
अपनी करता ज्यों मलंग
पीड़ की सरिता में डूबी,
जो बंधी है तेरे संग!

काटना चाहे उसे तू
उड़ना चाहे जो पतंग
बावरे क्या कर रहा तू
ऐसे मरती क्या उमंग?

आ धरा पर सहजता की
कर दे अपना मोहभंग
वो है वामांगी तेरी,
शत्रु नहीं, फिर क्यों ये जंग ?

खोल कर तो देख द्वारे
उर के, रह जायेगा दंग
प्रेम और विश्वास कर
मन की गलियाँ रख न तंग !!