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ताना-भरनी / यतीन्द्र मिश्र

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प्रेम का ताना
विश्वास की भरनी से

जीवन की बिछावन
तागी थी

न ताना कमजोर था
न ही भरनी थी ढीली

फिर भी बिछावन थी
जो फटती ही चली गयी
कम होता गया
दिन ब दिन उसका सूत

जैसे प्रेम का
विश्वास का दरक गया हो धागा

अब बिछावन है
जो पड़ी है धरती पर
फटेहाल अपना सिर उठाए

जीवन है
चल रहा इसी तरह
गँवा चुका विश्वास
थोड़ा सा प्रेम बचाए.