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ज़हरीला सूनापन / महेश उपाध्याय

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माना कुछ पास नहीं है अपने
कहने को बातें क्या कम हैं ?

मित्रों में गेन्द-सी उछालेंगे
दो बातें बासी अख़बारों की
माथे पर ग़ाली-सी फेंकेंगे
सौगातें पिछले इतवारों की

देखेंगे कैसे ?
डस पाएगा ज़हरीला सूनापन
संध्या तक इतने हम दम हैं
                   क्या कम हैं ?

बहसों में टूटेंगी आवाज़ें
यूँ ही दिन बीतेगा
मुफ़्ती जल-पान के सहारे में
(बैठे हैं)
कोई तो हारेगा, जीतेगा

धुँधलापन ओढ़कर चलेंगे घर
रातों को अनसुलझे ग़म हैं
                   क्या कम हैं ?