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झुलसी धरती / शचीन्द्र भटनागर

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साधो
सूख गया गंगाजल
धरती झुलसी है

नहीं कहीं अब
श्वेतपंख की पाँते हैं
नहीं रजतवर्णी मीनों की बातें हैं
लोग गुमे आभूषण अर्पित मुद्राएँ
यहाँ पत्थरों बीच खोजने आते हैं

लोगों की श्रद्धा भी
अब ढुलमुल-सी है

घाट-घाट पर
आसन लोग जमाए हैं
किन्तु प्यास बढ़ रही होंठ पपड़ाए हैं
द्रवित न कोई हदय यहाँ हो पाता है
और न पालन होती मर्यादाएँ हैं

तीर्थभूमि भी
हुई स्वार्थसंकुल-सी है

कल की बात हो गई
संझा बाती है
निष्ठा डगमग-डगमग पाँव बढ़ाती है
सतियों वाली चौकपुरी अँगनाई भी
सम्वेदना हदय में नहीं जगाती है

भूले हम आरती
उपेक्षित तुलसी है