अवकाश नहीं / शचीन्द्र भटनागर

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सूख रहा कण्ठ
होंठ पपड़ाए
लेकिन
अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है
नीर-भरे कूलों को नमस्कार

भाग रहे हैं
अनगिन व्यस्त गली-कूचों में
चौराहों-मोड़ों पर
भीड़ों के बीच कई एकाकीपन
मन से अनजुड़े हुए तन
कभी सघन छाँह देख
ललक-ललक जाता हूँ
मन होता ठहरूँ
विश्राम करूँ
लेकिन
कहीं ठहरने का अवकाश नहीं मिलता है
सतरंगे दुकूलों को नमस्कार
सारे अनुकूलों को नमस्कार

एक घुटन होती है
बादल के मन-सी
कुहरे की परतों में बन्दिनी किरन-सी
गन्धों की गोद पले गीतों के सामने
चटखते दरारों वाले मन जब
दौड़े आते है कर थामने
कभी-कभी मन होता
फेंक दूँ उतारकर विवशता में पहना यह
कण्ठहार
गन्धहीन काग़ज़ का
लेकिन
मन की करने का अवकाश नहीं मिलता है
गन्धप्राण फूलों को नमस्कार
बौराई भूलों को नमस्कार

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