कितना अजीब है
संस्मरण हो जाना
अपने ही जीवन का
कितना अजीब है
अपने से इतना दूर चले आना
धूल से अँटा हुआ
खेलता हुआ
जाड़ों में गिल्ली-डंडा
शाम को
तोते की तरह रटता पहाड़ा
वह मैं हूँ
वह मैं नहीं हूँ
बीते हुए बचपन के सिवा
एक लझड़िया साइकिल
और झोलाधारी एक सवार
कितने घरों में जाकर
ट्यूशन पढ़ाता हुआ
अपने कमाए हुए पैसों के लिए
महीनों गिड़गिड़ाता हुआ
घिसी चप्पलों में
जाता हुआ कालेज
वह मैं हूँ
वह मैं नहीं हूँ
आज, कल के सिवा
आज
खड़ा हूँ जहाँ
लोगों से जुड़ी एक कविता है
जो इस थकान से भरी ज़िन्दगी को
करती रही है संघर्षोन्मुख
ऎसे में
कितना शुक्रगुज़ार हूँ मैं
कविता तुम्हारा !