वे अगले तीस बरस तक मेरे सपनों में आते रहे
वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे
अलबत्ता वे अब भी अपनी कविताएं लिख रहे थे
यह सब मैंने सपने में देखा
फिर मैं नींद से जागा और कुछ समझ नहीं पाया
अब क्या बताऊं वे क्या लिखते रहे थे, क्या छूट गया पीछे
एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण
तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा
मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की भेद भरी पंक्तियां
जैसे कि आप उठा लेते हैं पंक्तियां
चांद से आकाश से या दरख्तों से
और वे कुछ नहीं कहते
शायद मुझे ही ढूंढनी होंगी तमाम शोरगुल के बीच
उनकी खामोशियां
और तमाम चुप्पियों के बीच
उनकी कोई अनसुनी चीख ?
वे तो चले उन रास्तों पर
जहां संदेह थे केवल संदेह और सवाल
और आश्वासन कोई नहीं
और वे जानते थे कि सच कहने से ज़्यादा ज़रूरी है
सच कहने की ज़रूरत का एहसास ?
मैं नींद से हड़बडा़ कर जागूंगा
इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे
मैं एक गहरी निद्रा से जागूंगा
मैं चारपाई,बिस्तर,कोठरी,कुर्सियों,बरतन -भांडों,
बाडों,बरामदों,मान-अपमान,,सुख-दुख,स्वार्थ,तारीखों
और मंसूबों और व्याकरण से बाहर निकलूंगा
रात दो बजे गझिन अंधकार में
मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ कदम बढाऊंगा
लेकिन फिर घबरा कर जल्दी से अपने अहाते में लौट आऊंगा
भारी भारी सांसों के साथ
इस तरह
इस तरह याद करता हूं मैं तीस साल पहले गुजरे
एक दिवंगत कवि को
उनकी कुछ अधूरी रह गयी कविताओं को