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गोपिका अनुराग / सूरदास

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लोक-सकुच कुल-कानि तजौ ।

जैसैं नदी सिंधु कौं धावै वैसैंहि स्याम भजी ॥

मातु पिता बहु त्रास दिखायौ, नैकुँ न डरी, लजी ।

हारि मानि बैठे, नहिं लागति, बहुतै बुद्धि सजी ॥

मानति नहीं लोक मरजादा, हरि कैं रंग मजी ।

सूर स्याम कौं मिलि, चूनौ-हरदी ज्यौं रंग रँजी ॥1॥


कहा कहति तू मोहिं ,री माई ।

नंद-नँदन मन हरि लियो मेरौ, तब तैं मोकौं कछु न सुहाई ॥

अब लौं नहिं जानति मैं को ही, कब तैं तू मेरैं ढिग आई ।

कहाँ गेह, कहँ मातु पिता हैं, कहाँ सजन, गुरुजन कहँ भाई ॥

कैसी लाज, कानि है कैसी, कहा कहति ह्वै ह्वै रिसहाई ?।

अब तौ सूर भजी नँद-लालहिं, की लघुता की होइ बड़ाई ॥2॥


मेरे कहे मैं कोउ नाहिं ।

कह कहौं, कछु कहिन आवै, नैं कुहुँ न डराहिं ॥

नैन ये हरि-दरस-लोभी, स्रवन सब्द-रसाल ।

प्रथमहीं मन गयौ तन तजि, तब भई बेहाल ॥

इंद्रियनि पर भूप मन है, सबनि लियौ बुलाइ ।

सूर प्रभु कौं मिले सब ये, मोहिं करि गए बाइ ॥3॥



अब तौ प्रगट भई जग जानी

वा मोहन सौं प्रीति निरंतर, क्यौंऽब रहैगौ छानी ॥

कहा करौं सुंदर मूरति, इन नैननि माँझ समानी ।

निकसति नहीं बहुत पचि हारी, रोम-रोम अरुझानी ॥

अब कैसैं निरवारि जाति है, मिली दूध ज्यौं पानी ।

सूरदास प्रभु अंतरजामी, उर अंतर की जानी ॥4॥



सखि मोहिं हरिदरस रस प्याइ ।

हौं रँगी अब स्याम-मूरति, लाख लोग रिसाइ ॥

स्यामसुंदर मदन मोहन, रंग-रूप सुभाइ ।

सूर स्वामी-प्रीति-कारन, सीस रहौ कि जाइ ॥5॥



नंदलाल सौं मेरौ मन मान्यौ, कहा करैगौ कोउ ।

मैं तौ चरन-कमल लपटानी, जो भावै सो होउ ॥

बाप रिसाइ, माइ घर मारै, हँसै बिराने लोग ।

अब तौ स्यामहिं सौं रति बाढ़ी, बिधना रच्यौ सँजोग ॥

जाति महति पति जाइ न मेरी, अरु परलोक नसाइ ।

गिरधर बर मैं नैंकु न छाँड़ौ, मिली निसान बजाइ ॥

बहुरि कबहिं यह तन धरि पैहौं, कहँ पुनि श्री बनवारि ।

सूरदास स्वामी कैं ऊपर यह तन डारौं वारि ॥6॥



करन दै लोगनि कौं उपहास ।

मन क्रम बचन नंद-नंदन कौ, नैकु न छाड़ौं पास ॥

सब या ब्रज के लोग चिकनियाँ, मेरे भाऐं घास ।

अब तौ यहै बसी री माई, नहिं मानौं गुरु त्रास ॥

कैसैं रह्यौ परै री सजनी,एक गाँव कै बास ।

स्याम मिलन की प्रीति सखी री, जानत सूरजदास ॥7॥



एक गाउँ कै बास सखी हौं, कैसै धीर धरौं ।

लोचन-मधुप अटक नहिं मानत, जद्यपि जतन करौं ॥

वै इहिं मग नित प्रति आवत है, हौं दधि लै निकरौं ।

पुलकित रोम रोम, गद-गद सुर, आनँद उमँग भरौं ॥

पर अंतर चलि जात, कलप बर बिरहा अनल जरौं ।

सूर सकुच कुल-कानि कहाँ लगि, आरज-पथहिं डरौं ॥8॥



हौं सँग साँवरे के जैहौ ।

होनी होइ होइ सो अबहीं, जस अपजस काहूँ न डरैहौं ॥

कहा रिसाइ करे कोउ मेरौं, कछु जो कहै प्रान तिहिं दैहौं ।

देहौ त्यागि राखिहौं यह ब्रत, हरि-रति बीज बहुरि कब बैहौं ॥

का यह सूर अचिर अवनी, तनु तजि अकास पिय-भवन समैहौं ।

का यह ब्रज-बापी क्रीड़ा जल, भजि नँद-नँद सुख लैहौं ॥9॥