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गो-चारण / सूरदास

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आजु मैं गाइ चरावन जैहौं ।
बृंदाबन के भाँति भाँति फल अपने कर मैं खैहौं ।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भाँति ।
तनक तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैं है अति राति ।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं साँझ ।
तुम्हरौ कमल बदन कुम्हिलैहै, रेंगत घामहिं माँझ ।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत , पर्‌यौ आपनो टेक ॥1॥


बृंदावन देख्यौ नँम-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ ।
जहँ-जहँ गाइ चरति ग्वालनि सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ।
बलदाऊ मोकौं जनि छाँड़ौ संग तुम्हारैं ऐहौं ।
कैसेहुँ आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हि न आवन पैहौं ।
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।
सूर स्याम बिनती करि बल सों, सखनि समेत सुनाई ॥2॥


बिहारी लाल, आवहु, आई छाक । भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटावहु दै हाँक । अर्जुन, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक । मिलि बैठ सन जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक । अपनी पत्रावलि सब देखत, जहँ-तहँ फेनि पिराक । सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥5॥


ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया । संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया । जब तैं ब्रज अवतार धर्‌यौ, इन, कोउ नहिं घात करैया । तृनावर्त पूतना पछारी, तब अति रहे नन्हैया । कितिक बात यह बका विदार्‌यौ, धनि जसुमति जिन जैया सूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिय पछितैया ॥6॥


आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्‌यौ ॥ पन्नग-रूप मिले सिसु गो-सुत इहिं सब साथ उबार्‌यौ । गिरि -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार्‌यौ । निडर गोपाल पैठि मुख भीतर, खंड-खंड करि डार्‌यौ । याकैं बल हम बदत न काहुहिं, सकल भूमि तृन चार्‌यौ । जीते सबै असुर हम आगैं, हरि कबहुँ नहिं हार्‌यौ । हरषि गए सब कहनि महरि सौं अबहिं अघासुर मार्‌यौ । सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँवार्‌यौ ॥7॥


ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे । आदि अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे । सोइ रूप वै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे । एक बरष निसि बासर रहि सँग, कहु न जानि परे । त्रास भयौ अपराध आपु लखि, अस्तुति करत सरे । सूरदास स्वामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥8॥


आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री । खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ सिसु रूप रच्यौ री । मिलि गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरि कंध सच्यौ री । गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामहि, आनि धरनि पर आप दच्यौ री ।

धर्म सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री । सूर स्याम अब कैं बचि आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिंधु मच्यौ री ॥9॥


अब कैं राखि लेहु गोपाल । दसहुँ दिसा दुसह दावागिनि उपजी है इहिं काल । पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल । उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।

घूम धूँधि बाढ़ी घर अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल । हरिन,बराह, मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल ॥ जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल । सूर अगिनि सब बदन समानी ,अभय किये ब्रज-बाल ॥10॥ बन तैं आवत धेनु चराए । संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए । बरह मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए । बिलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए । बिधि बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए । एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे, ग्वाल बने इक धाए । सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥11॥


मैया बहुत बुरो बलदाऊ । कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिलि आऊ । मोहुँ कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ । भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तै, काटि खाइ रे हाऊ । हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ । थरसि गयौं नहिं भागि सकौं, वै भागे जात अगाऊ । मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहावत साऊ । सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥12॥


मैया हौं न चरैहौं गाइ । सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ । जौ न पत्याहि पूछि बलदाऊहिं, अपनी सौंह दिवाइ । यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ । मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ । सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥13॥

धनि यह वृंदावन की रेनु । नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु । मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिय, अति सुख पावत चैन । चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु । इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिन कै ऐनु । सूरदास ह्याँ की सरवरि नहि, कल्पवृच्छ सुर-धैनु ॥14॥ सोवत नींद आइ गई स्यामहिं । महरि उठी पौढ़ाइ दुहुँनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं । बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहिं । गाढ़ै बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन बलरामहिं । सिव सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि जामहिं । सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥15॥


देखत नंद कान्ह अति सोवत । भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत । कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर । बार-बार तनु पोंछत कर सों , अतिहिं प्रेम की पीर । सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम । सूरदास प्रभु कै ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥16॥


जागि उठे तब कुँवर कन्हाई । मैया कहाँ गई मो ढिग तै, संग सोवति बल भाई । जागे नंद, जसोदा जागी, बोलि लिए हरि पास । सोवत झझकि उठे काहे तै; दीपक कियौ प्रकास । सपनैं कूदि पर्‌यौ जमुना दह, काहूँ दियो गिराइ । सूर स्याम सौं कहति जसोदा, जनि हो लाल डराइ ॥17॥


मैं बरज्यौ जमुना-तट जात । सुधि रहि गई न्हात की तेरै, जनि डरपौ मेरे तात । नंद उठाइ लियौ कोरा करि, अपने संग पौढ़ाइ । वृंदावन मैं फिरत जहाँ तहँ, किहिं कारन तू जाइ । अब जनि जैहौ गाइ चरावन, कहँ को रहति बलाइ । सूर स्याम दंपति बिच सोए, नींद गई तब आइ ॥18॥