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याज्ञसेनी-1 / राजेश्वर वशिष्ठ

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याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !

स्त्रियों के जन्म कब चाहे समय ने,
सभ्यता ने और पुरुषों ने
बस देह ही चाही !

पुत्र की ही चाह तब से आज तक है
युद्ध का नायक बनेगा वह !
मृत्यु पर देगा वही
अग्नि, तर्पण, दान, सज्जा भी
श्राद्ध होंगे पूर्वजों के संकल्प से उसके
राज्य का स्वामी बनेगा वह
कुछ नहीं बदला !

उद्विग्न थे राजा द्रुपद
संग्राम में हारे हुए थे
द्रौणाचार्य ने उनको हराकर
राज्य आधा ले लिया था
वह जानते थे
द्रौण भूलेगा नहीं उस वेदना को
गुरु-पुत्र था वह, मित्र भी था
बालपन में साथ थे वे,
दीक्षित हुए थे एक ही दिन !

एक राजा निर्धनों को
क्यों करे स्वीकार, यदि उपयोग ही न हो
जनहित का दिखावा घोषणा भर ही तो रहा है
हर समय में !

पुत्र की इच्छा प्रबल थी
यज्ञ में बैठे हुए थे द्रुपद
स्वस्तिवन्दन हो रहा था देवताओं का
आचार्य थे यज और उपयज
धूम्र से महका हुआ था यज्ञ-परिसर
मानो नृत्य अग्नि कर रहा था !

कुल देवता अब तृप्त थे हवि से
द्रुपद की याचना से
पुत्र ऐसा जो वध करेगा द्रौण का
पूर्ण पालित, धीर और गम्भीर भी हो
धृष्टद्युम्न उसका नाम होगा
वही, पाँचाल का राजा बनेगा!

अग्नि ने सौंपा उसे जब पुत्र
दुन्दुभि बजने लगी थी
जयघोष से, चारों दिशाएँ भर उठी थीं
यज्ञ लेकिन चल रहा था !

और, अब मैं अयाचित सामने थी,
जन्म था यह द्रौपदी का !

याज्ञसेनी नाम है मेरा
अयोनिज जन्मना हूँ !
कौरवों का नाश हूँ मैं
यह आकाशवाणी जन्म पर मेरे हुई थी !

यज्ञ तो पूरा हुआ आहुति देकर
पुत्र राजा को मिला
जो शौर्य में पुरुषार्थ में उत्कृष्ट ही था
पर इस खेल से मुझ को मिला क्या ?
क्या कामना की थी
किसी ने एक पुत्री की ?

स्त्रियाँ क्या मात्र हवि हैं
जो किसी भी यज्ञ में,
अग्नि में डालो, मसल दो
लालसाएँ पूर्ण कर लो ?

इतिहास है इस याज्ञसेनी का
जिसमें मुझे संघर्ष ही करना पड़ा है
कहानी है दुखों की, यातनाओं की
पुरुष के वर्चस्व की भी
बस नाम ही बदले गए हैं !
आओ सुनाती हूँ...