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और रात / अमृता भारती

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दिन
दिन में ही खो जाता
और रात
अपने विशाल

चमकीले पंख फैलाकर
उड़ती रहती
नींद में ।

मैं
इन दोनों के बीच की
सन्ध्या थी
रोशनी और अन्धेरे से बुनी
एक जाली —

कभी
पहला सन्ध्या-तारा
कभी सुबह की
अन्तिम तारक-द्युति —

दिन
दिन में ही खो जाता
बिना दिवा-स्वप्न के
और रात

वह उड़ती रहती
अपने विशाल चमकीले पंख फैलाकर
मेरी बन्द आँखों के
खुले आकाश में ।