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सुअर / सुरेन्द्र रघुवंशी

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मदमस्त हैं सुअर
कि जितना विष्ठा हो
उतना ही अच्छा
उतना ही आनन्द और मस्ती

सुअर होने की
आत्मस्वीकृति के बीच
विष्ठा खाने की स्वाभाविकता को
मिल चुकी है सामाजिक मान्यता

यह प्रश्न कितना फिज़ूल है
कि सुअर विष्ठा खाते हैं

गली-कूचों में घूमते-घामते
जब सुअर हो गए
दुष्कर मार्गों के चक्रव्यूह भेदने में सफल
तब वे बना बैठे
दफ़्तरों से लेकर
बड़े-बड़े सचिवालयों में
यहाँ तक कि
संसद तक में अपना स्थान

लगातार इनकी आबादी में बढ़ोत्तरी से भी
नहीं आई है
विष्ठा की उपलब्धता में कोई कमी
अकाल के बीच भी
फ़िलहाल तरोताज़ा है सुअरों की क़ौम

आप यह भी नहीं बता सकते
कि वे कब, कितना और कहाँ खा लेते हैं ?

वे इतनी सफ़ाई से खाते हैं
कि खा भी लेते हैं
और उनका मुँह
विष्ठा से लिपटा भी नहीं देख सकते आप