यमुना-तट रथ रुका, सुनयना झटपट रथ से उतरी
दृष्टि खोजती हुई पुलिन पर पारद जैसी विखरी
सूर्योदय हो चला, सुहानी धुप धरा पर छायी
इक्के-दुक्के धर्म-भीरु घाटों पर पड़े दिखायी
रथ था थमा जँहा-पक्के घाटों का अथ था, इति था
दृष्टि निकट ही ज्योति-पुुंज पर टिकी,चकित-विस्मित थी
पद्यासन में ध्यान-मग्न सिकता पर एक तरुण है
एक क्षितिज पर, अन्य कोन यह जट पर बालारुण है
हो अनंग भी लज्जित जिसके आगे,अतिशय सुन्दर
दिव्य-भव्य यह रूप न देखा गया आज तक भू पर
सिके मुख-मंडल की आभा दृष्टि न सह पाती है
कोई भी नारी लख जिसको तृण-सा बह जाती है
यह सौन्दर्य-सिन्धु जिसकी लहरे उद्याम;प्रबल हैं
वासव के अतिरिक्त झेल ले ऐसा किसमें बल है
निश्चय ही पुरुष है जिस पर तन-मन वारा होगा
वासव के प्रति रोम-रोम ने इसे पुकारा होगा
सौन्दर्यभिमान नयना का बिखर गया पल भर में
ईर्ष्यानल काा धुआँ छा गया किन्तु, पुनः अन्तर में
जन्मजात पटुता-कौशल से उसने अग्नि बुझाई
सँभल गयी क्षण भर में, मुख पर स्वाभाविकता छायी
कैसे चर्चा करूं-स्वामिनी पर क्या बीत रही है
रुदन बन गयी कंठ-कंठ का जो मधु-गीत रही है
रही योजनों दूर उदासी जिस नारी के मन से
जिसका मन जीता न गया मन से, कुेर के धन से
जिसकी हल्की-स्मृति पर त्रिभुवन न्यौछावर है
उसका हृदय चुराने वाला निश्चय यही सुन रहे हैं
नूपुर खोल,कंचुकी-भीतर डाले, कंगन कस कर
हौले-हौले बढ़ी तरुण की ओर, अतुल साहस कर
दबे पाँव की आहट भीगी सिकता पर हो कैसे
फिर भी निकट भिक्षु के पहुँची नयना जैसे-तैसे
मुख-मंडल की दिव्याभा का ओज न सह पाती है
साहस की नौका यमुना के साथ बही जाती है
उद्वेलित है हृदय,श्वाँस की गति अत्यन्त प्रखर है
पड़े कंचुकी मध्य नूपुरो में धीमा-सा स्वर है