Last modified on 26 नवम्बर 2014, at 21:45

विरहाग्नि / विमल राजस्थानी

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:45, 26 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=वासव दत्त...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शु़द्ध प्रेम की वासना का विकार होता है
कल्पवृक्ष के बीज हृदय-आँगन में बोता है
नैसर्गिक भावना-लोक की सृष्टि रचाने वाला
वह होता है उभय पक्ष को अमर बनाने वाला
हृदय हीन क्या समझें क्या होता है हृदय जुड़ाना
क्या होता है नयन-नयन का मंद-मंद मुस्काना
जिनने नहीं कपाट हृदय के कभी प्यार से खोले
जिनका मन भौतिकता की अंधी गलियों में डोले
जिनने महत महत्व प्रेम का कभी नहीं जाना हैं
मिलन-विरल का सुख-दुख जिनने कभी न पहचानना है
शकुंतला, दयमंती के मन की धड़कन क्या जाने
गुँथे परस्पर प्रेमी-मन को वे कैसे पहचाने
क्या होती है मधुर गुदगुदी, पुलकन क्या होती है
क्या होती है ठंड़ी साँसो, तड़पन क्या होती है
गरम उसाँसों की शीतल पीड़ा कैसी होती है
क्या होती मुस्कान, स्मिति, व्रीड़ा कैसी होती है
मधुर प्रतीक्षा की घड़ियों की महिमा को क्या जानें
झन्-झन् बजती मन-वाणी के स्वर को क्या पहचानें
क्या जाने उसाँस की भाषा, दृग का डबडब होना
भीगा-भीगा मधुर प्रेम से मन का कोना-कोना
क्या होती वियोग की पीड़ा, सुख मिलने का क्या है
असमय मुरझा जाने का दुख, सुख खिलने का क्या है
सूनी आँखां के तारों का झिलमिल झिलमिल करना
तट पर लेट, लहरियों की माँगे मोती से भरना
झुकी मदिर पलकें, कुरेदना पद-नख से माटी को
चिबुक उठा, चारों आँखो का निर्झरणी-सा झरना
प्यार प्रीति के लिये विकल मन जो जीते-मरत हैं
सबसे पहले वही स्वर्ग में युगल चरण धरते हैं
जहाँ न नर्तन-गायन हो, वीणा न जहाँ झंकृत हो
जहाँ मोन बाँसुरी, काव्य से कंठ नहीं मुखरित हों
मन-कुंजो में मृदुभावों का नहीं रास होता हो
मात्र जहाँ पर भौतिकता का अट्टाहास होता हो
श्मशान है वहाँ देवता फुल न बरसाते हैं
कमल नहीं खिलते, भौंरो के झुड नहीं आते हैं
मिले न अन्न उदर को, तृषित कंठ को न मिले पानी
सरस मानसिक, भोजन के हित तड़पेगे ज्ञानी
जब से वासवदता के पद-घूघँरू मूक हुए हैं
तब से मथुरा के जन-जन के उर दो टूक हुए है
मधुर चाँदनी रात चिनगियों की वर्षा करती है
सावन की फुहार अंगो मे तड़िप-ताप भरती है
रात बमावश की काले भूतो से भरी जाती है
अपनी छाया से जनता रह-रह डर जाती है
कौर गरल से लगते हैं, पानी खरा लगता है
बलशाली बलहीन, थका हारा-हारा लगता है
रुग्न और हो गये रुग्न, बालक तक चिल्लाते हैं
 युवा तड़पते, नर-नारी बावले हुए जाते हैं
खग-कुल-कलरव मंद-मंद छवि-कुंज-निकुंज व्यथित हैं
प्राणी-मात्र उदास, खिन्न, पवि-प्रस्तर स्तंभित हैं
होता है प्रभात, बालरुण उगाता धीरे-धीरे
संध्या-बंदन में लग जाते जन यमुना के तीरेे
जैसे ही वे अर्ध्य, सूर्य को, अंजलि भर देते हैं
लेकर लम्बी साँस, नाम वासव का ही लेते हैं
धर वासव का रूप विहँसतीं मंदिर में प्रतिमाएँ
समझ नहीं पाते पुरजर वे रोयें अथवा गायें
हुई न अब तक, होगी न विश्व में ऐसी नारी
जिसके रूप जाल में फँस छट-पट करते संसारी
जिसका एक कटाक्ष शवों में प्राण फूँक देता हो
जिसकी हल्की-सी स्मृति का दंश प्राण लेता हो
जिसकी एक झलक पाने को सुरपति अकुलाते हों
नक्षत्रो के पार सुयश के छवि-ध्वज फहराते हों
अचरज क्या जो स्वयम् रुदन को दृग-जल पड़े पिरोना
साधारण जन यदि उसको खोकर खो दे अपना होना
होते ही वर्षान्त, कसमसा उठी सुनयाना दासी
एक वर्ष हो गया, दुखी-संतप्त सभी पुरवासी
ओह प्रेम! तेरी महिमा कैसी विचित्र है
प्रेमी स्थितप्रज्ञ, प्रेमिका व्यथा-भार ढ़ोती है
सारी दुनियाँ को छिगुनी पर चढा़ नचाने वाली
त्रिपुर सुन्दरी, इन्द्रपुरी तक धुम मचाने वाली
 एक असधारण भले, मनुज से हार गयी है
लगता है-है नहीं धरा पर, भव के पार गयी है
यह लावण्य, पूर्णमासी का चाँद भी लगे फीका
यह स्वरूप, जैसे अखंड दीपक जलता हो घी का
मुरझायी-सी कली जिस पर धूप प्रचंड पड़ी हो
बिखरी-बिखरी ज्यों मोती की टूटी हुई लड़ी हो
पीत पत्र तलवो क नीचे ज्यों मर्मर करता हो
रिक्त कलश, कर दबाव से, जल में, स्वर भरता हो
रुधे-रुधे स्वर वासव के पीड़ा असीम देते हैं
ऐसा लगता7तरी कि जैसे बालू में खेते है
दिन लगता है कल्प सरीखा, रात युगो-सी लगती
वासव के संग सभी दासियाँ रात-रात भर जगतीं
कहाँ गये वे उत्सव के क्षण,त्यौहारो-सी घड़ियाँ
सूख-यूख कर बिखर गयीं हैं फूलों की हथकड़ियाँ
इन्द्रधनुष-सी सतरंगी मह-मह फूलो की क्यारी
पके फलों से लदी डालियों से गंुफित फुलवारी
उजड़ी-उजड़ी लगती मानों पाला मार गया हो
नव वसन्त, पतझर के हाथो, असमय हार गया हो
सावन मे झुले पड़ते थे, पेगो का क्या कहना
कुंज-कंुज, क्यारी-क्यारी में मलय वायु का बहना
आँचल तो थे नहीं कि जिनको पवन उड़ा ले जाए
उकसे-विकसे पुष्ट उरोंजों को लज्जा-सी आये
सूख गया है रंग-विरंगे फौवारो का पानी
पीली-पीली पड़ी प्रकति की चटक चुनरिया धानी
दीपाधारों पर असंख्य मणि-दीप नहीं बलते हैं
अब न काँच, शलभो को, लपटे दिखा-दिखा छलते हैं
चाँद लिए बारात तारो की अब भी आता है
आधी रात गये कुररी का दुख अब भी गाता है
परकीया-सी चपल चाँदनीी तुम पर रीझ गयी है
बाते अद्भुत घटित हो रहीं बिल्कुल नयी-नयी हैं
भीतर शैय्या पर औंधे मुंह वासव पड़ी हुई है
बाहर चिन्तित,दुख्री सुनयना सहमी खड़ी हुई है
पुरइन के पत्तो पर वारि बूँद बिखरी हो
अभी थमी वर्षा में दूबों की फुनगी निखरी हो
वैसे ही डब-डब आँखे हैं, पलकों पर हैं मोती
चू पड़ते यदि, प्रकृति सहज मोती की लड़ी पिरोती
निर्निमेष हेरती दृष्टि वासव का छटपट करना
कभी शीश तकिये पर, तकिया कभी शीश पर धरना
यह असह्म वेदना सही अब नहीं किसी से जाती
देख-देख वासव की पीड़ा सबकी फटती जाती
अंतःपुर है दुखी, नगर की दशा बहुत बिगड़ी है
कठिन बताना पीड़ा द्वय में छोटी कौन बड़ी है
हौले-हौल लाँघ देहरी नयना भीतर आयी
पीत पद-तली को सहला-सहला आँखे भर आयी
बोली-धीरज का अब सब का बाँध टूटने को है
हे तन्वगी! कब तक मन पर पीड़ा-भार सहोगी
चिड़ियों-सा दाना चुग-चुग कब तक टिकी रहेगी
यह साम्राज्य, रूप के चमत्कार का, ढ़ह कर
अगन वेदना-सिन्धु लहर पर दूर जा रहा बह कर
धूनी जला विरह की, उच्छावासांे की अलख जगा कर
कब तक, कह री! कब तक यह सन्ताप-बेल फूलेगी
कब तक,पलक-पालने आँसू की बूँदे झूलंेगी
दुखी मौन, पिंजरो में शुक-पिक नहीं चुग रही दाना
कुंज-कुंज ने तजा कली को छेड़ प्रसून बनाना
महल चौसठों में प्रेतों की छाया डाल रही है
हृदय कवदारक चुप्पी जीवन में विष घोल रही है
कल मै गयी तीर यमुना के, घाट-घाट घुमी हूँ
पागल की नाई मथुरा की हाट-बाट घूमी हूँ
कहीं एक पल को भी मन को शांति नहीं मिल पायी
मुझसे कहीं अधिक, अशांत नर-नारी पड़े दिखाई
पर भिक्षुक को देखा मैंने-शांत, साधना-रत था
मेरूदंड सीधा था, मसतक उसकी भाँति उन्नत था
आनन से पहले जैसी ही ज्योति-प्रभा झरती थी
रूप-श्री पहले जैसी ही मंत्र-मुग्ध करती थी
नहीं एक भी लक्षण मैंने दुःख व्यथा का पाया
निर्विकार, ध्यानावस्थित, लगता था निपट पराया
और एक तुम हो कि प्राण में उसे बसा रक्खा है
त्याग अमृत पीना, वियो का कालकूट चक्खा है
एक व्यक्ति के लिए सहस्त्रों हृदय दुखाये क्यों री!
लक्ष-लक्ष ये सुधी प्रशसक यों ठुकराये यो री!
सदा सुहास झरा जिन नयनो से, वे गीले क्यों हैं
ये अरुणिम कपोल आकर्षण,पीले-पीले क्यों हैं
उतर गयी मेंहदी हथेलियों की, कलाइयाँ सुनी
धधक रही है अग्नि हृदय में, निशि-दिन दूनी-दूनी
बुझा न पायी जिसे झड़ी, काजल कवहीन, आँखों की
देती नहीं सुनाई क्या तुमको उसाँस आँखो की
जिसकी साँसो से सारा संसार गमक जाता था
जिसकी स्मिति पा रवि-शशि का अयन चमक जाता था
स्वर सम्मोहक पर जिसके जग खिँचा चला आता था
जिसके भ्रू-विलास पर सुरपुर भी बलि-बलि जाता था
नूपुर की झंकृति से यह भूगोल डोल, जाता था
यह सारा खगोल जिसका जयकार बोल जाता था
वह साधारण भिक्षुक के हित बनी बावली क्यांे है
बाँट नहीं सकती क्या अपना प्रेम समग्र भुवन को
क्या न मिलेगी परम शांति इसक उद्वेलित मन को
जो मनुष्य उर के आसव को दोनो हाथ उलीचे
प्रेम-सुधा से हृदय-हृदय की वीथि-वीथि को सींचे
वह जीवन जय-जयकारांे का अधिकारी होता है
प्रलय-काल तक रखता सृष्टि हरित अमृत-सोता है
नहीं एक का, जो तन सारे जग का हो जाता है
विश्व-प्रेम का बीज धरित्री पर वह बो जाता है
वही बीज जब वट का रूप लिये बाहर आता है
पत्र-पत्र से, रंध्र-रंध्र, भू का सींचा जाता है
रस की अमिय फुहार अनवरत चुम्बन बरसाती है
दिक्दिगन्त हँसते, प्रसन्न धरा नाच जाती है
तज यशोधरा को,राहुल को, बुद्ध बने थे सब के
यदि ऐसा करते न तथागत, मिट जाता री! कब के
करो विकेन्द्रित प्रेम प्यार को, कण-कण में बिखराओ
जन-जन के मन-मन में पहले सा रमो-रमाओ
नहीं भिक्षु न देवि! किया है तिरस्कार, सच मानो
अन्तर्यामी होते हैं योगी, न त्रिया-हठ ठानो
वचन-वद्ध है, निश्चय ही जीवन में क्षण आयेगा
होगी आँखे चार, सिद्धिया भूल, शरण आयेगा
तजो उदासी, हो प्रसन्न, वीणा अंकस्थ करो री!
दशों दिशाओ में अमृतवाणी भरो, भरे री!!
देखो-स्वर्ण-नूपुरो की डबडब आँखा को देखो
व्याकुल खुलने का मयूर की छवि-पाँखो को देखो
मसृण थाप के हेतु मृदंगो की व्याकुलता देखो
अधरामृत पीने की वंशी की आकुलता देखो
रोम-राम प्यासे,धरती के प्राण छटपटाते हैं
रस बरसे,रस बरसे क्षण-क्षण कण-कण चिल्लातें हैं
दूधो भरी तलैया सूखी, फटी-फटी लगती है
जीवन डोरी कक्ष-कक्ष की कटी-कटी लगती है
कुंज-कुंज उजड़े, निकुंज सुनसान पड़़े हैं कब से
इन्हे निहाल करो अयि सुभगे! कौशल से, करतब से
तोड़ो मौन, उठो अयि वामा! सजो-धजो, मुस्कराओ
प्यारी मथुरा के आँगन-आँगन अमृत बरसाओ
फिर लौटे वे दिवस रुपहले, वे वासन्ती रातें
जिहवा-जिहवा पर थिरकें वासव-आसव की बातें
कर सोलह श्रृंगार, पुनः मथुरा का मान करो री!
नाचो, गाओ अमृतमयी! शव-शव के प्राण भरो री!
खिलें कमल की पंखुड़ियाँ, भौंरों के दल मँडरायें
पंछी चहकें, तृषित तितलियों के संपंख खुल जायें
प्राची के बालारुण ज्यों उठता है धीरे-धीरे
संध्या ज्यों सिन्दूर लुटाती सौम्य सिन्धु के तीरे
पवन विहँस कलियों के घूँघट ज्यों सरका देता है
पंछी उड़ने से पहले पाँखे फरका देता है
उठो, मँगाती हूँ सुरभित जल की साने की झारी
आनन धो कर तुम खँगाल लो ये आँखे रतनारी
जैसे ही मुड़ चली सुनयना, वासवदता बोली
उठ कर बैछ गयी धीरे से, बाझित पलकें खोलीं
मौन टूटता देख स्वामिनी का नयना आ बैठी
सहलाने फिर लगी पग-तली, दृष्टि-दृष्टि में पैठी