पाने को एकान्त, रात हो या दिन, चल देते हैं
त्याग विहार, पुलिन यमुना के, भिक्षु शरण लेते हैं
नीरव, शान्त, ब्रह्म-वेला में, सिकता पर सन्यासी
पद्मासन में बैठ, पी रहे, हो ध्यानस्थ, सुधा-सी
अणिमा के चिर धनी, देख आये हैं अपनी आँखों
वासव के वियोग में हैं निष्प्राण दुखी जन लाखों
सोच रहे मन ही मन-नारी का भी हृदय अनोखा
गृही और सन्यासी में अन्तर न तनिक अवलेखा
मैंनेे किया अनंग बहुत पहले ही अपने वश में
मुझको वेध सके न वाण ऐसा उसके तरकश में
आंमत्रण का अर्थ-विपल में मैंने जान लिया था
दुखद अंत के समय मिलूँगा,मन में ठान लिया था
देख रहा हूँ मैं वासव का अंत इन्ही आँखों से
उड़ पायेगी नहीं विहंगिनि कटी-छँटी पाँखों से
विश्वसुन्दरी का विद्रूपित मुख मैं देख रहा हूँ
क्या है, क्या होगा, राई-रत्ती अवलेख रहा हूँ
फिर भी जाने कौन शक्ति मुझको यों हिला रही है
मौन, शांत मन-वीणा के तारों को मिला रही है
देख रहा हूँ मैं इन तारों का झन-झन बज उठना
मन के किसी कोण में सुख के सपनों का सज उठना
मधुर गुदगुदी-सी प्राणों में यदा-कदा होती है
देख रहा हूँ-वासव-दृग में मोती ही मोती है
राजमार्ग सूने, गलियाँ तक भी सुनसान पड़ी हैं
अकसमात् मेरे कारण आयी यह कठिन घड़ी है
क्या छोडू़ँ, क्या ग्रहण करूँ, कुछ समझ नहीं पाता हूँ
बारंबार ध्यान-मंदिर से लौट-लौट आता हूँ
उसकी पीड़ा देख, हृदय में दुख भर-भर आता है
लगता है-उसको औ’ मेरा युग-युग का नाता है
बिना कुछ हुए दो हृदयों की डोर नहीं बँधती है
लक्ष्य नहीं बिंधता, न प्रत्यंचा कभी नहीं सधती है
किंतु, मुझे इस चंचल मन को मार, मोड़ना होगा
कच्चे धागे को झटके से शीघ्र तोड़ना होगा
भटक रहा नक्षत्र ज्ञान का, नभ इसको देना है
उचित दिशा मंे, भटकी चिंतन, तरणी को खेना है
विचलित यदि अपने पथ से थोड़ा भी मैं होऊँगा
निश्चय कोटि-कोटि जन्मों तक पछताऊं-रोऊँगा
’’दृढ विचार कर, डूब गये उपगुप्त सिद्धि के रस में
विचलित मन को किया तत्क्षण, वल्गा कस कर, वश में‘‘