Last modified on 3 दिसम्बर 2014, at 13:22

पुरजन / विमल राजस्थानी

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 3 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=वासव दत्त...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उसकी आँख में लपट घृणा की, उसी आँख से पानी
दो नावो पर चढ़े हुए हैं ज्ञानी औ‘ विज्ञानी
लगता है-डूबेंगे जैसे वासव डूब गयी है-
भाव-तगत की विकट परिस्थिति लगती निपट नयी है
एक ओर सिद्धान्त धर्म है, ओर दूसरी मन है
कवि मन ही मन हँसता-यह कैसा मानव जीवन है !
रह-रह वासव की स्मृति मन को कुरेद जाती है
नृत्य, मधुर संगीत की कमी हृदय वेध जाती है
अब न वायु पंखो पर धर कर मधु, घर-घर घुमेगी
अब न झनक पायल की श्रुति-प्रिय धरा-गगन-चूमेगी
अब न रूप-शशि-मलय प सुर-अलि मँडरायेंगे
आँसू की दो बूँद गिरा कर मेघ लौट जायेंगे
चौंसठ महल रूप-रानी के प्रेतो के घर होंगे
उल्लू, चमगादड़, श्रृगाल के मिल-जुले स्वर होंगे
उजडेंगे बन-बाग, झाड़ के काँच तड़क टूटेगे
वन्दरवार बिखर जायेंगे, मंगल-घट फूटेंगे
विश्व-सुन्दरी मथुरा नगरी कहाँ ढूँढ पायेगी
जनम-जनम तक स्मृति मधुरिम रूपसि की आयेगी