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वैराग्य / विमल राजस्थानी

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हुआ च्चरित ज्योंही ‘सुमुखी’ शब्द सलोना
मुख-मंयक पर श्याम मेघ का लगा डिठौना
पूर्ण चंद्र-सौन्दर्य अमित दमका आनन पर
ऋतुपति तिल-तिल बिखर गया हो ज्यों कानन पर
अंग-अंग से द्युति झरती ज्यों झरता सावन
आकृति धुली-धुली, लगती है अतिशय पावन
धीरे-धीरे दुर हो रहा अन्तर का तम
दूर विलीन पिकी के स्वर, पायल की छम-छम
सभी वासनसाएँ जल-जल कर क्षार हा रहीं
एक-एक कर सभी क्षितिज के पार हो रहीं
नृत्य, वाद्य, संगीत, कलाएँ विदा ले रहीं
ज्ञान-रश्मि झर-झर मंगल आशीष दे रहीं
रोम-रोम में वासव के वैराग्य भरा है
मिला अमृत आलोक, नया जीवन निखरा है
बीते जीवन की स्मृति अवशेष नहीं है
बदला मन, पिछला कोई परिवेश नहीं है
चरणों पर धर शीश आत्म-संयुक्त हो गयी
वासव बौद्ध भिक्षुणी बन कर मुक्त हो गयी
मुक्त हो गयी जड़-बंधन से, राग-द्वेष से
निकल पड़ी निर्वाण-पंथ पर, मन-प्रदेश से
आगे-आगे बोधित्व उपगुप्त चल रहे
वासव अनुगामिनी, ज्ञान के दीप जल रहे