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डम्पिंग ग्राउण्ड / मणि मोहन

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किसी मक्कार आदमी के ड्राइंग-रूम में पसरे
उसके किंग साइज सोफ़े
और टायलेट में लगी
कमोड की तारीफ़ के बाद
ज़ेहन में बची रह गई भाषा से
कविता नहीं बनती

किसी तानाशाह की जी-हुजूरी
और अभिनन्दन के बाद
ज़ेहन में बची रह गई भाषा से भी
बात नहीं बनती

क्योंकि कविता
भाषा का डम्पिंग ग्राउण्ड नहीं होती ।