Last modified on 12 दिसम्बर 2014, at 16:27

ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है / सगीर मलाल

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 12 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सगीर मलाल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ुद ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है
और गहराई में उतरूँ तो धुआँ होता है

इतनी पेचीदगी निकली है यहाँ होने में
अब कोई चीज़ न होने का गुमाँ होता है

इक तसलसुल की रिवायत है हवा से मंसूब
ख़ाक पर उस का अमीं आब-ए-रवाँ होता है

सब सवालों के जवाब एक से हो सकते हैं
हो तो सकते हैं मगर ऐसा कहाँ होता है

साथ रह कर भी ये एक दूसरे से डरते हैं
एक बस्ती में अलग सब का मकाँ होता है

क्या अजब राज़ है होता है वो ख़ामोश ‘मलाल’
जिस पे होने का कोई राज़ अयाँ होता है