Last modified on 13 दिसम्बर 2014, at 21:44

कोई नग़मा है न ख़ुश-बू है न रानाई है / 'उनवान' चिश्ती

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:44, 13 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='उनवान' चिश्ती |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कोई नग़मा है न ख़ुष-बू है न रानाई है
जिंदगी है के जनाज़ों की बरात आई है

आह ये जब्र के महरूम-ए-बहाराँ भी रहूँ
और ईमान भी लाऊँ के बहार आई है

गो तेरे सामने बैठा हूँ तेरी महफ़िल में
दिल-ए-मायूस को फिर भी ग़म-ए-तन्हाई है

सोचता हूँ उसे लब्बैक कहूँ या न कहूँ
प-ए-तजदीद-ए-मोहब्बत तेरी याद आई है

आँख मिलने भी पाई थी के महसूस हुआ
जैसे पहले से मेरी उन की शनासाई है