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लड़ाइयाँ-1 / प्रेमचन्द गांधी

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लड़ाइयाँ तो दुनिया में आने से पहले ही
शुरु हो जाती हैं
असंख्‍य शुक्राणुओं में से कोई एक जीतता है
और माँ के गर्भ में हमें रचने की
शुरूआत करता है

सृष्टि के खेल में लड़ता हुआ भ्रूण
निरन्‍तर रचता है हमारी काया
नौ महीने बाद लड़ता है
दुनिया में आने के लिए
और लड़ाइयाँ चलती रहती हैं
दुनिया में आने के बाद भी

क़ुदरत से लड़कर हम बड़े होते हैं
पैरों पर खड़े हो चलना सीखते हैं
जीवन की लम्‍बी लड़ाइयों के लिए

बिना लड़े कुछ भी हासिल नहीं होता
यह जानते हैं हम, लेकिन
दुनिया की बेहतरी के लिए चल रही
लड़ाइयों में अगर शामिल नहीं हम
तो तय मानिए कि
शुक्राणु से मनुष्‍य बनने तक की
हमारी सारी लड़ाइयाँ व्‍यर्थ थीं

व्‍यर्थ क्‍यूँ फिर लड़ें हम
हर लड़ाई में चुपचाप खड़े हम
नहीं किसी के फेर में पड़ें हम
स्‍वार्थ के घड़े हम
इस तरह एकान्‍त में सड़ें हम ।