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खेत / मुकुल दाहाल

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कभी न चल कर भी खेत
गतिमान हैं
शताब्दियों की लम्बी राह पर

शुभ्र बादलों के तोरण
झुके हैं खेतों पर

झरती हैं बूँदें झर-झर
नहलाते हुए
उजले करती हैं खेतों के बदन

नीले आकाश का मुखड़ा झुका हुआ उनपर
बोलता नि:शब्द
और कहीं दूर बहुत दूर से आती रोशनी मिलने के लिए

आती हुई हवाएँ खेलती हैं
मिट्टी की गेंद से
लिखते हुए खेत पर
दिन, शाम, भोर और रातें

उभर आती हैं हरी-हरी पंक्तियाँ

खेत हैं कि कर रहे हैं ठिठोली
पेड़ -पौधों से

और देखते ही रहते हैं आँखों की कोर से
जैसे प्रवाहमान नदी का प्रवाह हो
गतिमान न होकर भी ।
निरंतरता का बहाव है खेतों के साथ
सरल, सरस, आनंद के कई रंग हैं खेतों के साथ
सदैव लिए कंचन सद्भाव की ध्वजाएं
खेत अपने साथ

कभी नहीं बहके हैं ये
चौक, शहर, बाज़ार के रंगीन शोर
और उनके बीच जीते हुए
कभी नहीं बोले ऊँचे स्वर में किसी के खिलाफ़ ।

अचंभित हूँ मैं !
फिर भी, बहुत दूर से आए हैं खेत
सदियों से पूरी कर रहे हैं अपनी दौड़

जीवन का नैसर्गिक मुखड़ा (अकृत्रिम चेहरा)
बहस की छाया से दूर
न पहने है उतावली की पोशाक
होते जा रहे हैं आधुनिक
उत्तर आधुनिक ये ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अपर्णा मनोज