अभी भी मौजूद हैं चारणों की कौम
विडम्बनाओं से भरे समय में भी
वे लिख रहे हैं स्तुति-गान
दरबारों में गा रहे हैं विरुदावली तन्मय होकर
कला इनके पास आकर होती है शर्मिंदा
शब्द रोते हैं और सिसकते हैं स्वर
प्रश्नों के अम्बार अपने उठाए जाने
और अनगिनित क्रान्ति-गीत अपने गाए जाने की प्रतीक्षा में हैं
और वे नतमस्तक होकर व्यस्त हैं चरण-वन्दना में
गिरवी रखकर अपने स्वाभिमान की दौलत
सत्ता की क्रूर तिजोरी में
सिक्कों की चन्द थैलियों के लिए