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हे अनन्यगीत / त्रिलोचन

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हे अनन्य गति, दिवारात्रि हो चाहे सायं प्रात


उत्सव समारोह होते ही रहते हैं

सब अपने मन की धारा में बहते हैं

जीवन में समाज का गौरव गहते हैं

कह लेते हैं इन की उन की अपने मन की बात


हँसी और आसूँ से धरती भरी हुई

करती है श्रृंगार नई श्री हरी हुई

पत्ते पर दूब के ओस है धरी हुई

डरी हुई है किरण हवा का सहना है आघात


गीत फूल ये दो जीवन के दान हैं

साँसों की गति के सरगम है मान हैं

मन में समा गई सुषमा के ध्यान हैं

मधुर तान है व्योमविहारी पक्षी के, दिन रात


अस्थिरता है, स्थिरता की क्यों चाह है

जहाँ चाह है सुना है वहाँ राह है

किन्तु राह पर जब भी देखा आह है

साँसों से ही क्यों होता है साँसों का आघात


(रचना-काल - 20-09-49)