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कठफोड़वा / विजेन्द्र

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अक्सर नहीं, कभी-कभी दिखता है
वो मेरे घर के आगे खड़े
छौंकरे की सघन शाखों में
छिपता-फुदकता जैसे
यह दुनिया उसके पीछे पड़ी है।
इतना सुन्दर पक्षी-
जिसे मैंने कहा है
’वसंत का राजकुमार’ अपनी कविता में
छोटे आकार का यह विरल पक्षी
मुझे हर साल जगाने आता है
वसंत के शुरू में-
कुछ-कुछ पीला, कुछ-कुछ हरा
कुछ चितकबरा
कलगी सुनहरी पीली
आगे गर्दन पर खिंचा लाल तिलक
कभी नहीं देखा मैंने
तुझे धरती पर उतरते
एक बार अपने पंजों को धरती से छुआ कर देख-राजकुमार!
तुझे मनुष्य के गहरे दुःख का पता चलेगा
ओ, वसंत आते ही सुनता हूँ
तेरी नकसुरी विदग्ध चीख
क्या तू भी मेरी तरह दुःखी है
इस विनाशकारी मनुष्य से।
तू अकेला ही क्यों करता ठक-ठक
पेड़ के तनेे में खोखड़ बनाने को
कहाँ है तेरी मादा
अरे, फिर मारीे तूने ठौंक
पेड़ के खुले सीने पर
तू क्या ऐसेे ही काट देगा
अपनी सारी उम्र
पेड़ में सुरक्षित घर बनाने के लिए
मैंने भी कई बार
इस छौंकरे की छाल उपाटी है
तब मुझे दिखाई दीं चारों तरफ फैली
टेढ़ी-मेढ़ी मटमैली लकीरें उसके तने पर
जैसे मेरे हाथ की रेखाएँ
तूझे पता नहीं
छाल-भक्षी कीट इसे खते हैं
अन्दर-ही-अन्दर
मुझे जैसे खाती है अदृश्य पंखहीन चिंताएँ
तेरी सख्त चौंच
जैसेे कठा श्रमिक का सब्बल है
जिससे वो खोदता है
सख्त पथरीली धरती
मुझे पता नहीं
तू ठक-ठक कर अपना घर बनाता है
या छाल-भक्षी कीड़ों को तलाशता है
अपने भोजन के लिए-
मैं जानता हूँ-तेरी ठक-ठक मुझे जगाती है
कुहरिल तंद्रा से
कँकरीला सन्नाटा टूटता है।
मेरे लिए भी कुछ असंभव नहीं
यदि लगन और साहस हों तेरे जैसे
तेरी पूँछ मछली की तरही फड़फड़ाती है
हवा में-
तू पेड़ की छाल पर सरपट दौड़ता है
मुझे लगा तू इतना आज़ाद होकर भी
कैद है
इतने खुले वन मेें
कहीं-न-कहीं कैद! कैद!
               2003