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रात आधी / विजेन्द्र

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रात है- आधी
बाहर और भीतर
घर में घना सन्नाटा
अँधेरे के पंखधारी बीज
बो रहा है
साथ देने को
न तो झोंका है हवा का
न पारिजात गंध का खुला डैना।
डूबा रहा अवसाद में
डूबी चट्टानें पानी केे भीतर
कहाँ खोजूँ शांति का उजला वक्ष
पत्तियों की नरम देह से
टपकती बूँदे तरल रात की
खोजता रहा जीवन की गहराइयांे मे
छिपी उथली गँदली पोखरें
खिली कपास में कभी देखा था
उत्‍तर भारत के श्रमी किसान का
धड़कता दिल, विद्रोही कटाक्ष
एकाकार खुलती पंखड़ियों की चहक
बहुत लंम्बी है यात्रा
बहुत लंम्बी
कठिन और कठोर चट्टानों पर चढ़ना
जहाँ से चला, क्या लौटूँ वहाँ, फिर-
अब वहाँ फुकी राख के ढेर है
चिनगारियाँ खोजने
अब वहाँ नहीं जाऊँगा
गाँव की गलियाें में
अब भी कींच है
सड़ता पानी कुओ के आसपास
अकाल और सूखा
कुपोषण से मरते है बच्चे
धरती पर पहले से ज़्यादा
खून के क़तरे गिरे हैं
रक्त चुसे आदमियों के कंकाल है सामने
पौष्टिक खाने के बिन
आदमियों के बढ़ जिगर
तिल्ली पे आयी सूजन
ये भव्य अस्पताल उन्हें मयस्सर नहीं
ओह इतनी खसी रात
बिल्कुल अकेला इतनों के बीच
सुनता हूँ काँपती छायाओं की
रजत खनक
अदेखा अगला दिन सुबह दस्तक देगा
कोई जोति स्तंभ ऐसा नहीं
जिसकी रोशनी दूर तक जाती हो।

2009