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मुज़फ़्फ़रनगर 94 / शेखर जोशी

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(सन्दर्भ : उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन)

जुलूस से लौटकर आई वह औरत
माचिस माँगने गई है पड़ोसन के पास ।
दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी
बतिया रही हैं दोनों
नहीं सुनाई देती उनकी आवाज़
नहीं स्पष्ट होता आशय
पर लगता है
चूल्हे-चौके से हटकर
कुछ और ही मुद्दा है बातों का ।

फटी आँखों, रोम-रोम उद्वेलित है श्रोता
न जाने क्या-क्या कह रही हैं :
नाचती अँगुलियाँ
तनी हुई भवें
जलती आँखें
और मटियाये कपड़ों की गन्ध

न जाने क्या कुछ कह रहे हैं
चेहरे के दाग
फड़कते नथुने
सूखे आँसुओं के निशान
आहत मर्म
और रौंदी हुई देह ।

नहीं सुनाई देती उनकी आवाज़
नहीं स्पष्ट होता आशय
दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी
बतियाती हैं दोनों ।

माचिस लेने गई थी औरत
आग दे आई है ।