Last modified on 6 मार्च 2015, at 12:35

हारा थका जो शाम को मैं अपने घर गया / महेश कटारे सुगम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 6 मार्च 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश कटारे सुगम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हारा-थका जो शाम को मैं अपने घर गया ।
ख़ुशियाँ मिलीं थकान का चेहरा उतर गया ।

बेटी लपक के इस तरह बाँहों में आ गई,
जैसे ख़ुशी की गोद में पंछी ठहर गया ।

बीवी को पढ़ा शाम के अख़बार की तरह,
मंज़र समूचे दिन का ज़हन पर उतर गया ।

तनख़्वाह माँ को सौंप के अहसास ये हुआ,
सारा महीना चैन की ज़द में गुज़र गया ।

हर रात सब के साथ गुज़रती है अब सुगम,
लगता है घर में प्यार का दरया ठहर गया ।

25-02-2015