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पाथर / प्रवीण काश्‍यप

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हम थिकहुँ पाथर
कनेक हमरो देखू!
अनंतकालीन तिरस्कार
भोगलो उत्तर
नहि भेल छी निष्प्राण!
जड़ बूझल जाइत छी,
चैतन्यक सगे संग रहि कऽ!
मात्र हरियर-उष्ण वस्तु सँ,
अछि अहाँक प्रणय।
कनेक हमरो देखू प्रेमक दृष्टि सँ!
कनेक देखू हमरो मे अछि जीवन,
अन्तर्निहित एक बिन्दु पर।
घनत्व बड्ड अछि हमर जीवनक;
अहाँ पहुँचब परम बिन्दु पर?

चेतनाक ई सभटा प्रतिमान
पशु-पक्षी, नदी-नाला
एतेक चर प्रतीत होइत अछि

कियेक तऽ हमहीं संवहित कयने छी,
एहि प्रकृतिक जीवन
अपन मूल जीवन सँ!
ई सभ अछि चर
एहिलेल, कियेक त हमरा
बूझत जाइत अछि जड़!
एहि जड़ताक वेदनाक संग
हम सृष्टिक आदि काल सँ,
जीवनक एक-एक टा चेन्ह
रखने छी करेज सँ लगा,
तह पर तह सजाकऽ,
जीवनक इतिहास, वर्तमान रखने छी
प्रेम, ऊर्जा, गति, सौन्दर्य कें उघैत
आबि रहल छी अनंत यात्रा सँ।
आ जीवनक संगी बनि कऽ
करैत रहब यात्रा।
हमरा लेल ने अछि कल्प ने प्रलय!
सभ चर, जीवन, गति
शांत भऽ कऽ
हमरे में मिलि जाइत अछि;
फेर सँ एक नव जीवनक लेल
चलबाक उपक्रमक लेल!