Last modified on 5 अप्रैल 2015, at 17:06

मेरा मन / श्रीनाथ सिंह

Dhirendra Asthana (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:06, 5 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatBaalKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी यहाँ है, कभी वहां है,
इसकी पकड़े कौन नकेल।
तेज रेलगाड़ी बन जाती,
चाल देख गुड़ियों का खेल।।
दिन में रात ,रात में दिन का,
ध्यान इसे हो आता है।
जहाँ चाहता है मुझसे,
बे पूछे ही भग जाता है।।
जंगल इसमें आ जमते हैं,
नदियाँ इसमें बहती हैं।
चीं चीं करके चिड़ियाँ इसमें,
जाने क्या क्या कहती हैं।
मैं जब चाहूँ इसमें सूरज,
का गोला दिखलाता है।
धीरे धीरे वही चंद्रमा,
का टुकड़ा हो जाता है।।
शकल दिखा कर भूतों की,
यह कभी डरा देता हमको।
कभी उन्हीं से लड़ने को,
तलवार धरा देता हमको।।
कभी हँसाता कभी रुलाता,
कभी खेलाता सब के साथ।
जो जो यह दिखला सकता है,
होता अगर हमारे हाथ।।
तो जमीन से आसमान तक,
सीढ़ी एक लगाते हम।
इन्द्रासन से हटा इंद्र को,
अपना रँग जमाते हम।।
पानी में हम आग लगाते,
बनता तेज हवा पर घर।
बिना मास्टर के पढ़ जाते,
सारी पुस्तक सर सर सर।।
अजी व्यर्थ की बातें छोड़ो,
इनमे क्या है कहो धरा।
खाते खाते मन के लड्डू,
नहीं किसी का पेट भरा।।