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साहिर लुधियानवी / परिचय

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साहिर लुधियानवी (१९२१-१९८०): एक प्रसिद्ध शायर तथा गीतकार थे । इनका जन्म लुधियाना में हुआ था और इनकी कर्मभूमि लाहौर (चार उर्दू पत्रिकाओं का सम्पादन, १९४८ तक) तथा बंबई (१९४९ के बाद) रही थी ।

जीवन

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म 8 मार्च 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। हँलांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् 1939 में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं।

सन् 1943 में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह तल्खियाँ छपवायी। 'तल्खियाँ' के प्रकाशन के बाद से ही उन्हें ख्याति प्राप्त होने लग गई। सन् 1945 में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। उनके विचार साम्यवादी थे । सन् 1949 में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई (वर्तमान मुंबई) आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने।

फिल्म आजादी की राह पर (1949) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली। फिल्म नौजवान का गाना ठंडी हवायें लहरा के आयें ..... बहुत लोकप्रिय हुआ और आज तक है। बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिये गीत लिखे। सचिनदेव बर्मन के अलावा एन. दत्ता, शंकर जयकिशन, खैयाम आदि संगीतकारों ने उनके गीतों की धुनें बनाई हैं।

59 वर्ष की अवस्था में 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से साहिर लुधियानवी का निधन हो गया।


व्यक्तित्व

उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितना ध्यान औरों पर दिया उतना खुद पर नहीं । वे एक नास्तिक थे तथा उन्होंने आजादी के बाद अपने कई हिन्दू तथा सिख मित्रों की कमी महसूस की जो लाहौर में थे । उनको जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ जब अमृता के घरवालों ने उनकी शादी न करने का फैसला ये सोचकर लिया कि साहिर एक तो मुस्लिम हैं दूसरे ग़रीब, और दूसरी सुधा मल्होत्रा से । वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया । उनके जीवन की तल्ख़ियां (कटुता) इनके लिखे शेरों में झलकती है । परछाईयाँ नामक कविता में उन्होंने अपने गरीब प्रेमी के जीवन की तरद्दुद का चित्रण किया है -

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में

तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है

न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ

ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं

तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं

मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे

तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,

अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम

सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,

दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,

वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं


बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया

हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया


नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं

बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं


तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया

हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया


मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये

इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये


खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं

मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं


फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं

जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं


इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे

चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे


बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे

जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

हिन्दी फ़िल्म

हिन्दी (बॉलीवुड) फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में भी उनका व्यक्तित्व झलकता है । उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस कदर झलकती है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हों । उन्हें यद्यपि शराब की आदत पड़ गई थी पर उन्हें शराब (मय) के प्रशंसक गीतकारों में नहीं गिना जाता है । इसके बजाय उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में आत्मिकता की जग़ह भौतिकता तथा सियासी खेलों की वहशत के गीतकार और शायरों में शुमार है ।

साहिर वे पहले गीतकार थे जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी । उनके प्रयास के बावजूद ही संभव हो पाया कि आकाशवाणी पर गानों के प्रसारण के समय गायक तथा संगीतकार के अतिरिक्त गीतकारों का भी उल्लेख किया जाता था । इससे पहले तक गानों के प्रसारण समय सिर्फ गायक तथा संगीतकार का नाम ही उद्घोषित होता था ।

प्रसिद्ध गीत

  • आना है तो आ (नया दौर 1957), संगीत ओ पी नय्यर
  • अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम (हम दोनो 1961), संगीत जयदेव
  • चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें (गुमराह), संगीत रवि
  • मन रे तु काहे न धीर धरे (चित्रलेखा 1964), संगीत रोशन
  • मैं पल दो पल का शायर हूं (कभी कभी 1976), संगीत खय्याम
  • यह दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है (प्यासा 1957), संगीत एस डी बर्मन
  • ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (नया रास्ता 1970), संगीत एन दत्ता