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कवि / राम दरश मिश्र

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आवाज़ों के कोलाहल में भी
तू कुछ गुनता रहता है
सन्नाटे में भी ना जाने
क्या-क्या तू सुनता रहता है!

गठरी-मोटरी लाद दुखों की
ज़िंदगियाँ चलती रहती हैं
कंगाली की कड़ी धूप में
वे नंगी जलती रहती हैं

हँसता रहता आसमान
अपनी निर्दयता का सुख लेकर
उनके लिए आँसुओं से तू
छायाएँ बुनता रहता है

फैला आती हैं कबाड़
धन-मद-माते जलसों की रातें
कितने ही टूटे बसंत
कितनी-कितनी रोती बरसातें

मलबों के भीतर रह-रह
कुछ दर्द फड़फड़ाते-से लगते
अपनी पलकों से प्रभात में
तू उनको चुनता रहता है!

ज़ख़्मी-ज़ख़्मी हवा घूमती
डरा-डरा-सा बहता पानी
लगता है, यह समय हो गया
तम की एक अशेष कहानी

'नहीं, बहुत कुछ अभी शेष है'
तेरे सपनों से धुनि आती
तेरे शब्दों का उजास, तम को
चुप-चुप धुनता रहता है!