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यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा,
इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा ।
कब से खड़ा चिरौरी करता, मेरी पेन्शन कहाँ फँसी है
सेवामुक्त हुआ मैं कबका, नाव किनारे पहुँच धँसी है ।
साहब तक काग़ज़ पहुँचाता, बस दस्तख़त भर ही तो करना
दस रुपए दे रहा कहता, सौ से नीचे काम न बनना ।
कहते हैं कायथ खटकीरा, जाने नहीं पराई पीरा
सुबह-सुबह घर भी जा करके, दे आया बच्चों को खीरा ।
मगर आज फिर टरका देगा, बस भाड़ा कल पुनः लगेगा
बीस रुपए भी ले लेता, कम से कम कल वक़्त बचेगा ।
फ़ाइल, दस्तख़त और मुहर में, घात लगी बैठी आज़ादी
सारी प्रगति यहीं आ उलझी, बुनती है केवल बरबादी ।
सीधा सहज काम जो क्षण का, बरसों फँसकर माथ धुन रहा
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा