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हृदय सहचर / संतलाल करुण

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तुम्हारा रूप था ऐसा
आह, कितना रहा सुन्दर !

तुम्हारा हृदय था निर्मल
मेरे मन का सहज सहचर |

तुम्हारे हाथ रखते थे
मेरे कर्मों से न अंतर |

तुम्हारे पाँव बढ़ते थे
मेरे संघर्ष के पथ पर |

तुम्हारा अंत ही दाहक
जलूँ दिन-रात रह-रहकर |

हवन-सी अनबुझी यादें
सँजोए आह भर-भरकर |