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मैं मज़दूर / शंकरानंद

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अपने जीवन में एक घर नहीं बना सका छत का
जो भी बहाया पसीना
उसके बदले ज़मीन खरीदी
और फूस लिया पेट काट कर

जैसे-तैसे गुज़र रहा जीवन
इसी से दाल के दाने चुनता हूँ
ईंट के चूल्हे पर पकाता हूँ रोटियाँ
अपने घर से हज़ारों कोस दूर

दूर देश में जहाँ पाँच हाथ ज़मीन है मेरे नाम
उस पर भी सबकी नज़र लगी हुई है

वर्षों बेघर रहने के बाद अब सोचता हूँ कि
फूस का ही घर बना लूँ

लेकिन डर लगता है कि
कहीं कोई उसमें भी रातों-रात तीली न लगा दे ।