Last modified on 29 जनवरी 2008, at 15:08

दग्ध भोगी तृषित बैठे... / कालिदास

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:08, 29 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=कालिदास |संग्रह=ऋतु संहार / कालिदास }} Category:संस्कृत द...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: कालिदास  » संग्रह: ऋतु संहार
»  दग्ध भोगी तृषित बैठे...

दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्र से फैला विकल फन

निकल सर से कील भीगे भेक फन-तल स्थित अयमन,

निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,

भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,

एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!