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कुँआरी नदी / प्रतिभा सक्सेना

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भाग - 1

1
धरणी-धर हैं पर्वत,साधे क्षिति की हर अकुलाहट,
हर आहट ले रक्षा करता, अपनी रीढ़ सुदृढ़ रख।
पाहन-तन गिरि की मजबूरी, पितृवत् करता पोषण
अंतर में करुणा की धारा बहती स्नेहसुधा सम।
2
आदि युगों से जिसका वर्णन करती पुरा-कथाएँ,
जीवनदायी स्रोत बहातीं उन्नत गिरिमालाएँ,
दुर्लभ भेंटें प्रकृति लुटाती ऋतुक्रम, अनुपम,अभिनव
शोभा भरी घाटियाँ बिखरातीं मरकत का वैभव।
3
धन्य अमरकंटक की धरती,धन्य कुंड, वह पर्वत।
वन-श्री अमित संपदा धारे औषधियाँ अति दुर्लभ
स्कंद-पुराणे रेवा-खंडे जिसे व्यास ने गाया -
वह अपार महिमा कह पाना मेरे लिए असंभव!
4
भारत-भू का हृदय प्रान्त जो उन्नत दृढ़ वक्षस्थल,
पयधारी शिखरों से पूरित, वन उद्भिज से संकुल।
मेखल-गिरि के राज कुंड से प्रकटी उज्ज्वल धारा,
ज्यों मणियों की राशि द्रवित हो बहे, कि चंचल पारा।
5
कितने पुण्य! धरा पर उतरी महाकाल की कन्या,
कंकर-कंकर शंकर जिसका, रूप-गुणमयी धन्या।
विंध्य और सतपुड़ा की बाहों में खुशियाँ भरती,
धरती का वरदान, ‘ नर्मदा' नाम सार्थक करती।
6
झरना बन कर वहीं फूट आया जब नेह शिखर का,
सोनमुढ़ा से अविरल स्रोत बह चला निर्मल जल का।
'सोन' नाम धर दिया देख कर उसका वर्ण सलोना
जो देखे रह जाय ठगा-सा धर दो एक दिठौना।
7
नाम नर्मदा प्यार भरा, पर रेवा भी कहलाई,
उसे शोण की उछल-कूद वाली चंचलता भाई।
दोनों परम प्रसन्न खेलते क्रीड़ा करते चलते-
लड़ते-भिड़ते, बातें करते, खिलखिल कर हँस पड़ते।
8
आदिवासिनी एक प्रवाहिनि जुहिला और वहाँ थी,
खग-मृग से आपूर्ण वनों की हरीतिमा में बहती।
रीति-नीति मर्यादा के संस्कार रहे अनजाने,
वन्य समाजों के अपने आचार जोहिला माने।
9
एक राज कन्या, मेखल पर्वत की राजदुलारी,
दूजी, महुआ-वन के मत्त पवन की सेवन हारी।
बचपन बीता शोण बढ़ गया अपनी गति में आगे,
दोनों बालाओं ने जोड़े प्रिय सखियों के नाते।
10
यौवन ने दोनों पर ही अपना अधिकार जमाया
एक दूसरी से दोनों ने अपना कुछ न छिपाया।
हँसती थी नर्मदा -मिली है कैसी मुझे सहेली -
जीवन उसके लिए सरल अति, मेरे लिए पहेली!
11
राजकुँवरि के लिए योग्यतम आएगा प्रतियोगी।
आदिवासिनी कहीं वनों में अपना वर खोजेगी।
वीर शोण ने सिद्ध कर दिया अपना पौरुष अभिनव
मुग्ध हो गई कुँवरि, देख कर शौर्य, रूप, कुल, वैभव।

भाग - 2

1
पूर्वराग# में मगन नरमदा रहती खोई-खोई,
जुहिला सखि,के नाते करती रहती थी दिलजोई।
'प्रीत पाल ली मन में, चुपके जाकर मिल भी आ, री?’
'चुप्पै बैठ जुहिलिया, लाज शरम तू कुछ न विचारी।'
2
(और फिर एक दिन...)
कुहनी टिकाये अधलेटी-सी रेवा, पी को लिखे प्रेम पाती,
ऐसी मगन सुध खोई, न जानी, जुहिला खड़ी मुसकराती।
'पाती लिखै, बेसरम - बेहया, कइस बैठी इहाँ पे अकेली,
मो सों न चोरी चलिबे तिहारी, बचपन से मो संग खेली! '
3
'सुन री सखी, मोरी जोहिला बहिनियाँ,जाने तू मनवा की पीर,
चाहों में काटूँ जो रतियाँ अकेली तू ही बँधावे धीर।
साथी रहे शोण बालापने को, मँगेतर भयो मन हुलास।
मैं तो सयानी भई, मेरी सजनी, पी से मिलन की ले आस! '
4
दोनों सखी साथ बहती चलीं एक दूजी से कर मन की बात
'कासे कहूँ, लाज लागे मोहे, एक तू ही पे मोरा बिसास।
जुहिला री गुइयाँ, मोरी सखी, काके हाथन पठाऊँ सँदेस?’
'चिन्ता न कर मोरी बहिनी नरबदा, काहे करे हिय हरास!
5
'अबके सहालग पे आयेंगे ब्याहन दूल्हा बने सिर मौर,
फिर हम कहाँ साथ, होंगे सहेली, थोरी सबूरी और।
तेरी लिखी प्रेम-पाती ला बहिनी, ले जाऊँ जीजा के पास। '
हुलसी नरबदा, आगे बढ़ी थाम लीन्हें जुहिलिया के हाथ।
6
'एकै तु ही, मोरे हियरा की जाने, तो से ही पाऊँ मैं धीर,
मोरे लिख्यो तू ही पहुँचाय दीजो, मोरे पिया जी के तीर।
तुरतै न पकराय दीजो, तभै जब ओ ही करें मोहे याद।
पहले परीच्छा लीजो सखी, जान लीजो हिया को सुभाव। '
7
थोरा खिजा के, थोरा रिझा के, बातन से करके बनाव,
चक्कर में जीजा को डालूंगी पहले , संदेसवा ता के बाद।
विरहा की पाती अपने से बाँचेगा तेरा पिया हो निरांत$!
गुनती रहौंगी चेहरे की भंगी, हियरा का पढ़ लूँगी साँच।
8
तेरी सखी हूँ, जानेगा तब ही , ला री ला, चिठिया दे हाथ।
पहनावा तेरा धारूँगी गुइयाँ, होवे बड़ा ही मजाक।
हँस के नरबदा ने खोली पिटारी, पहिराये तन भूषण-वस्त्र।
'जुहिला, अरी तू पिछानी न जाये’ ,रेवा तो एकदम निःशब्द!
9
'अँगिया में,घाघरमें,चूनर में,चोलीमें रेवा री,का की सुगंधि?'
'पिया की लाई बकावलि धरी ही, ऐ ही पिटरिया में संचि।
या ही में मोरे प्राण बसत हैं, हे सखि, कहियो जाय! '
रेवा ने जुहिला को तुरतै पठायो आापुन सौंहें दिबाय
10
रेशम की अंगिया,लहरिया की चूनर,घघरी की घूमें अछोर,
बाहों में जगमग सतरँग चुरियाँ , छाती पे हारें हिलोर।
जुहिला चलीं, तन लहरे , सुगंधी मह-मह पवन उड़ाय,
यौवन का मद अइस भारी,परत पग धरते ही पे डगमगाय।
11
पाती अंगिया ठूँस धरी,गति बल खाती,लहराती,
देख कुमारी रेवा की रह गई धक्क से छाती।
देखत रही लगाए टक-टक , उठी हिया में हूक,
अइस मरोर उठे, हुइ जाये कहीं कलेजा टूक।
12
बावलिया सी जुहिला नेह- मुग्ध पर रीत न जाने,
क्या कुछ ये कह डाले, फिर क्या सोचे शोण न जाने।
गई, गई वह गई, न जाने वो लौटे क्या करके,
चैन न पल भर पाए रेवा, समय न आगे सरके।

भाग - 3

1
बहता चला जा रहा शोण, ले के चढ़ती उमरिया का रोर,
अपने में डूबा, उछाले मछरियाँ उमँगें तरंगे अछोर।
सोने सा रँग, रूप दमके सलोना, डोले तो धरती डुलाय,
गज भर का सीना, पहारन सी देही, बाहों में पौरुख अपार।
2
देखा न ऐसा पुरुष कोई अब लौं, जुहिला तो आपा भुलानी,
पग की उतावल थकी,जइस उफनत गोरस पे छींट्यो पानी।
मनकी ललक और तन की छलक पीर जागी हिया में अजानी
हाय रे, कैसा बाँका मरद, देख दूरहि ते जुहिला सिहानी।
3
आई कहाँ से सुवास, खिल गई ज्यों बकावलि पाँत,
चौंका सा देख रहा शोण, नई रंगत नए आभास।
स्वप्न है या कि सच ये यहाँ, मन अजाने भरमने लगा,
एक दृष्यावली सामने और कौतुक सँवरने लगा।
4
तन के वर्तुलों पर बिखरता उमड़ी लहर का जल,
उछलती मोतियों सी, झलकतीं बूँदें चमक चंचल,
असंख्यक झिलमिलाते कौंध जाते हार हीरों के -
नगों की जगमगाती जोत, जल में बिछलती पल-पल!
5
दिखाती इन्द्रधनु सतरंग बूँदों के,
दमकती देह लहराती बही आती -
फुहारें छूटतीं या टूटतीं नग-हार की लड़ियाँ,
हिलोरे ले तटों तक की शिराएँ दीप्त कर जाती!
तभी मधु-स्वर -
6
'नमस्ते भद्र, यह शुभ दिन दिखाया धन्य हूँ, मैं तो’
जुड़े कर, मोहिनी सी डाल, लहराती समुन्मुख हो। '
चकित बोला,'शुभागम हो, तनिक विश्राम ले लें अब।
भ्रमण का हेतु,परिचय, जानने को मन हुआ उत्सुक। '
7
'बदल इतने गए, पहचान मैं भी तो नहीं पाती,
वही तुम भद्र, बचपन के, न यह अनुमान भी पाती। '
भ्रमित -सा शोण,’ बचपन में कहाँ?' बोली,' अमरकंटक।
वहीं से तो चली , बीहड़ वनों में खोजती यह पथ! '
8
'बरस बीते, शिखर वह रम्य जीवन का’ अमरकंटक'
सभी कुछ याद आया नाम सुन तुमसे’ अमरकंटक'!
तुम्हारी वास स्मृतियों को जगा, भटका रही है क्यों?
'वही हो तुम, वही' - फिर फिर यही दोहरा रही है क्यों?
9
मिली है बुद्धि इतनी तो कि मैं अनुमान कर पाऊँ
तुम्हारी राजसी भूषा निरख, पहचान मैं जाऊं।
यही तो गंध मेरी है, तुम्हें सौगंध है मेरी।
बकावलि शर्त जीता मैं, वही अनुबंध हो मेरी। '
10
इसी के तो लिए मैं दुर्गमों में वर्ष भर भटका,
अँधेरी घाटियों में पर्वतों में भी नहीं अटका।
भयंकर नाग-दानव-यक्ष सबसे पार पाया था ,
बिंधा था कंटकों से, मृत्यु से भी जूझ आया था।
11
भरे व्रण देह के, लेकिन कसक अब भी उभर आती,
प्रिया को अंक में पाए बिना क्यों शान्त हो पाती।
सकारथ हो गया, पाया तुम्हें, बस शेष अब कुछ दिन,
तनिक तुम पास आओ,तृप्ति कुछ पाये,तृषित यह मन।
12
तुम्हारे प्रेम की गरिमा, कठिन पथ चल यहाँ आईँ,
सुकोमल पग-करों को, पा गया सौभाग्य सहलाऊँ। '
तनिक मुड़, अँगुलियों से पत्र बाहर खींचने का क्रम,
उसी क्षण शोण उस उत्तेजना में कर गया व्यतिक्रम।
13
चौंक जुहिला गई और डगमग हुई
वह सँभलते-सँभलते थमी रह गई,
नीर उफना उठा वेग-आवेग में,
और पाती न जाने कहाँ बह गई!
14
कुछ न पूछा, न कुछ भी बताया,
लहर से लहर मिल गई बोल चुप रह गये।
दो प्रवाहों का ऐसा उमँगता मिलन
शोण-जुहिला मिले साथ ही बह गए!
15
सब भूल शोण की लहरों में जा डूबी,
फिर लाज शरम सब बिला गई पानी में
आदिम नारी बन गई आदिवासिन तब,
उस काम्य पुरुष की उद्धत मनमानी में!
16
जुहिला तो वहीं विलीन हो गई सचमुच,
अब लौट कहाँ पाए अपनी राहों में?
सब कुछ बीता हो जाता, उस नारी का ,
जो समा गई जाकर नर की बाहों में!
17
फिर देश-काल मर्यादा कौन विचारे,
यह दोष स्वभावों में धर गया विधाता,
देहोन्माद आवेग उमड़ता जब भी
सुर-नर-मुनि कोई नहीं यहाँ बच पाता!
18
रात है या दिन न जाने शोण -
स्तब्ध बरहा ग्राम, दशरथ घाट।
हो गया क्या, आँख फाड़े -
मौन छाया है , महा-आकाश!

भाग - 4

1
कहाँ रही जुहिला?
हेर हेर पथ थकी नर्मदा, पखवाड़ा बीता,
भूख-प्यास बिसराई सारा स्वाद हुआ तीता।
फिर न रुक सकी, उठ कर चल दी बिना साज-सिंगारे,
कुछ अनहोनी हुई न हो - मन कैसे धीरज धारे।
2
पग अटपट पड़ रहे, वेग से भर आई छाती।
जयसिंह पुर तक जा पहुँची वह पल-पल अकुलाती।
निकला बरहा ग्राम, अरे वह, आया दशरथ घाट,
लहराता है दूर-दूर तक कितना चौड़ा पाट!
3
शोण भद्र के बाम पार्श्व में जुहिला की धारा
समा गई थी वहीं, हहरता फेन भरा सारा।
चूड़ियन की कुछ टूट, वस्त्र से झरे सुनहरे कण
अपने सभी प्रसाधन वह पहचान गई तत्क्षण।
4
शैवालों में जा अटका था रेशम का फुँदना।
चोली के डोरी-बंधन में सजता था कितना!
अरी जोहिला, आई थी देने मेरी पाती
ओह, समझ आया सब-कुछ। निकली कैसी घाती!
5
अरी, स्वयं-दूतिका, निलज्जा और शोण तुम भी। ।
खोया संयम धीरज तुमने, तोड़ दिया प्रण भी?
अब किसका विश्वास, नहीं कोई जग में अपना,
जीवन भर की आस, भग्न हो गई कि ज्यों सपना!
6
प्रेम भरे हिय पर मारा, कैसा निर्मम धक्का,
क्षार हुआ माधुर्य, विराग जमा हो कर पक्का।
वह जो थी वह रही, शोण, पर मुझे दुख तुम पर-
समझे बैठी थी समर्थ वचनों का पक्का नर!
7
यह संसार व्यर्थ सारा, बेकार सभी नाते,
प्रेम एक धोखा, शपथें हैं जिह्वा की घातें!
चलो जहाँ, कोई न सखा, कोई न मिले अपना
मन अब शान्ति खोजता केवल, बस एकान्त घना।
8
पूरब दिशि से मोड़ लिया मुख, घूम गई पच्छिम,
उसी बिन्दु से लौट पड़ी, आहत रेवा तत्क्षण।
जुहिला का सच जान, शोण को भारी पछतावा,
दुःख-ग्लानि से पूर हृदय में समा गई चिन्ता।
9
पलट चली रेवा घहरा कर शोण पुकार उठा -
'रुक जा री रेवा!
रूक जा रेवा, मत जा, मुझसे दूर कहीं मत जा!
मेरी प्रीत पुकारे रेवा, मुझसे रूठ न जा!!
10
बालापन का नेह, बिसर पायेगा नहीं हिया।
बतला, तेरे बिन ये जीवन किस विध जाय जिया!
दुख का ओर न छोर। नर्मदा मुझसे दूर न जा!
11
मन से मन का नाता सच्चा काहे जान न पाई,
एक बार, बस एक भूल को छिमा न तू कर पाई।
एक तु ही रे मीत नरमदा, ऐसे दे न सजा!
12
मैं पछताता रहूँ और तुझको भी चैन कहाँ,’
नेहगंध में काहे उसको बाँट दिया हिस्सा?
जहर पिला दे अपने हाथों, ऐसे मत तड़पा!
मुझसे दूर न जा! '
13
रपटीली पथरीली राहें, धार-धार बिखराएँ,
टेर रही आवाज़ शोण की, कानों सुनी न जाए।
तन की सुध ना मन में चैना, पल-पल जल छलकाती,
रुके न रेवा, सुध-बुध खोई, कौन उसे समझाए!
14
शोण गुहारे मेखल तक जा, टोको रे उसको,
मान्य -स्वजन सेवक, संबंधी, कोई दौड़ गहो!
पच्छिम दिसा विकट पथरीली, कोई सोचो रे!!
कोई करो उपाय, अरे, रेवा को रोको रे!!!

भाग - 5

1
गूँजी आकुल टेर शोण की, सुन हियरा काँपे
चौंके सारे अपन-पराये, भागे घबरा के,
माँ की ममता लहर-लहर कर परसे अँसुअन साथ
मैखल पितु का हिरदा दरके कइसन धी रुकि जाय!
2
जुहिला रोवे, सोन पुकारे तोरे पड़ें हम पाँय!
रेवा तो सन्यास लिये, प्रण है - ना करूँ विवाह
पंडित-पुरोहित पहाड़न से जम, रोकन चहैं बहाव
बिखर सहस धारा बन छूटी अब कह कौन उपाय!
3
राहों में पड़ गय बीहड़ बन माली और कहार,
नाऊ बारी, अड़ते टीले, देखे आर न पार।
हठ कर समा गई तुरतै ही गहरा भेड़ा घाट,
ताप हिया में, नयनों में जल धुआँ-धुआँ,आकाश! (धुआँधार)
4
दासी-दास बियाकुल रोवैं झुक-झुक देवें धोक
वा को कुछू ना भाय। नरमदा, कहीं न माने रोक
और अचानक अगले डग पर आया तल गहवार
घहराकर नरमदा हहरती जा कूदी अनिवार
5
वेग धायड़ी कुंड मथे हो खंड-खंड चट्टान,
रगड़ प्रचंड कठिन पाहन घिस हुइ गए शालिगराम
केऊ की बात न कान सुनावे, केऊ क मुँह ना लगाय
भाई-बहिना फिर-फिर टेरें रेवा ना सनकाय।
6
दिसा दिसा की लगी टक-टकी थर-थर कँपै अकास
चित्र-लिखे तरु-बीरुध ठाड़े पवन न खींचे साँस।
मारग कठिन, अगम चट्टानें वा को कछु न लखाय
धरती पर जलधार बहाती रेवा बढ़ती जाय!
7
उधर शोण अनुताप झेलता चलता रहा विकल चित,
व्यक्त कभी हो जाता बरसातों की उमड़न के मिस
पार हुए पच्चीस कोस, यों लगा बहुत चल आया,
गंगा को अर्पित कर दी तब गुण-दोषों मय काया
8
सुना नर्मदा ने, पर उर की पीड़ा किसे सुनाए,
कोई ठौर विराम न पाये जो थोड़ा थम जाए।
व्रत ले लिया, निभाना होता नहीं सदा आसान,
अँधियारे आदिम वन, मारग बीहड़ औ'सुनसान।
9
जीव जगत की साँसों की धुन छा जाती इकसार,
झिल्ली की झन्-झन् का बजने लगता जब इकतार,
प्रकृति नींद में डूबी , औँघा जाती सभी दिशाएँ
करुण रुदन के स्वर सुन थहरा जातीं स्तब्ध निशाएँ!
10
कुछ अधनींदे राही, सुन लेते हलकी सी सिसकी,
लगता जैसे रुकी पड़ी है कहीं कंठ में हिचकी।
किसे सौंप दे जल कि अपावन पड़े न कोई छाया।
रेवा रही खोजती ऐसी दिव्य पुनीतम काया!
11
पिता गरल पायी, वह भी पी गई सभी कड़ुआहट,
इस जग के जीवन के पथ में है कौन, न हो जो आहत?
कितना लंबा मार्ग और जीवन की उलझी रेखा,
पार किया आ गई नर्मदा, ले कर अपना लेखा!
12
भृगु कच्छ तीर्थ सीमान्त,
वहीं पितृ-चरणों में झुक गई क्लान्त।
पा सोमनाथ की नेह-दृष्टि सोमोद्भव रेवा हुई शान्त।
पग-पग कर कल्याण, जगत हित करती आई धन्या
उस निर्वाण-प्रहर में सिन्धु बन गई पर्वत-कन्या!


प्रणाम -
विपुल पश्चाताप में आश्वस्ति तुम प्रयश्चितों सी,
तुम्हीं शुभआवृत्ति अंतर्भावना के धारकों सी!
तुम सतत सौन्दर्य-श्री के अंकनों से पूर क्षिति को,
शाप-ताप विनाशिनी मम वाक् पर आशीष बरसो!


आदि मकरारूढ़ जीवन-जलधि की तुम दिव्य-कन्या,
शुभ्रता की राशि, कलुष-निवारिणी तुम ही अनन्या,
लो अशेष प्रणाम, मन-वच-कर्म की सन्निधि तुम्हीं हो,
प्रलय में भी लय न, चिद्रूपे , सतत ऊर्जस्विनी हो!