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सपने छत से लटक रहे थे / पृथ्वी पाल रैणा

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खुले किवाड़ दिखे तो झाँका भीतर सन्नाटा पसरा था
दीवारें इतिहास बनी थी सपने छत से लटक रहे थे
दस्तक दी तो हिला डुला कुछ, बुझी हुइ आबाज सी आई
"कौन है भाई?"-बोला कोई
मुझ को भी मालूम कहाँ था कौन हूं मैं
फिर भी मैं बोला,"कौन हो तुम और कैसे हो?*
'लाश हूं लेकिन मरा नहीं हूँ बोला कोई’
'भीतर आओ, और पहचानो कौन हूं मैं"
दबे पांव जब धीरे से भीतर जा देखा
सांस रुक गई, ठहर गया सब
कैसी उलझन? यह सब क्या है?
यह भी मैं और वह भी मैं
'हां, गौर से देखो और पहचानो’, वह बोला-
'मेरे होने से ही तुम हो! अब तक भी न जान सके तुम?*
'जग में जाकर भटक गए और खुद अपने को भूल गए!
'अब आए-तो क्या लाए हो, सोचो!
'देखो इन दीवारों को जो दरक रही हैं
'मुरझाए और वेबस इन सपनों को समझो
'बेचारे इस छत से कैसे लटक रहे हैं
'अब क्या होगा, तुम तो इतने थके हुए हो
'कैसे चल पाओगे आगे साथ मेरे
'रुको यहां तुम, मैं चलता हूं-मुझको तो आगे जाना है
'जग की मिट्टी से जो तुमने रिश्ते बांधे,
'अब तुम भी बस इस मिट्टी में ही मिल जाओगे
'अच्छा लो अलविदा कहो-मैं चलता हूं’
वाह! मेरे जीवन की सच्चाई मुझ को ही मालूम नहीं
जाने कैसा मोह जगत का मेरे भीतर कहर ढा गया।