जो जेब नहोती कुरते में
तो पैसे भला कहाँ धरते?
जो घास न होती धरती पर
तो गदहे घोड़े क्या चरते?
जो हवा न होती यहीं कहीं
तो गुब्बारों में क्या भरते?
जो सूँड न होती हाथी के
तो हाथी का हम क्या करते?
बेसूँड न हाथी खा पाता
बेसूँड न हाथी पी पाता,
कहने को हाथी कहलाता
पर बिना हाथ का हो जाता।
वह मुँह ललचाता रह जाता
दो दाँत दिखाता रह जाता
फायदा फकत इतना होता
उसको जुकाम न हो पाता!
-साभार: रघुवीर सहायक रचनावली-2, बाल साहित्य, 405