Last modified on 6 अक्टूबर 2015, at 03:09

फायदा / रघुवीर सहाय

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:09, 6 अक्टूबर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जो जेब नहोती कुरते में
तो पैसे भला कहाँ धरते?
जो घास न होती धरती पर
तो गदहे घोड़े क्या चरते?
जो हवा न होती यहीं कहीं
तो गुब्बारों में क्या भरते?
जो सूँड न होती हाथी के
तो हाथी का हम क्या करते?

बेसूँड न हाथी खा पाता
बेसूँड न हाथी पी पाता,
कहने को हाथी कहलाता
पर बिना हाथ का हो जाता।
वह मुँह ललचाता रह जाता
दो दाँत दिखाता रह जाता
फायदा फकत इतना होता
उसको जुकाम न हो पाता!

-साभार: रघुवीर सहाय रचनावली-2, बाल साहित्य, 405