Last modified on 7 अक्टूबर 2015, at 05:38

बोल समंदर / कृष्ण शलभ

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:38, 7 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कृष्ण शलभ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatBaalKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बोल समंदर सच्ची-सच्ची, तेरे अंदर क्या,
जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या?
रहती जो मछलियाँ बता तो
कैसा उनका घर है?
उन्हें रात में आते-जाते
लगे नहीं क्या डर है?
तुम सूरज को बुलवाते हो, भेज कलंदर क्या?
बाबा जो कहते क्या सच है
तुझमें होते मोती,
मोती वाली खेती तुझमें
बोलो कैसे होती!
मुझको भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?
जो मोती देगा, गुड़िया का
हार बनाऊँगी मैं,
डाल गले में उसके, झटपट
ब्याह रचाऊँगी मैं!
दे जवाब ऐसे चुप क्यों है, ऐसा भी डर क्या?
इस पानी के नीचे बोलो
लगा हुआ क्या मेला,
चिड़ियाघर या सर्कस वाला
कोई तंबू फैला-
जिसमें रह-रह नाच दिखाते, भालू-बंदर क्या?