सुबह हो या शाम
हर दिन बस एक ही सिलसिला
काम, काम और काम...
जिंदगी बीत रही यूं ही
कि जैसे
अनगिनत पांवों से रौंदी हुई
भीड़-भरी शाम
सीढ़ियां
गिनती हुई
चढ़ती-उतरती
मैं
खोजती हूं अपनी पहचान
दुविधाओं से भरे पड़े प्रश्न
रात के अंधेरे में
प्रेतों की तरह खड़े हुए प्रश्न
खाली सन्नाटे में
संतरी से अड़े हुए प्रश्न
मन के वीराने में
मुर्दों से गड़े हुए प्रश्न
प्रश्नों से मैं हूं हैरान
मुश्किल में जान
जिंदगी बीत रही
जैसे हो भीड़-भरी शाम।