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ऊंठ / नीरज दइया

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“ओ ऊंठ दांईं सूतो ई रैसी कांई?” जीसा रा बोल उठतां ई उण रै कनां पड्‌या। स्यात्‌ बो खासी ताळ भळै ई सूतो रैवतो, पण अबै बो आंख्यां मसळतो उठग्यो हो। पण जागता थकां ई बो तुरत पाछो नींद में भळै जाय पूग्यो, जठै बीं नै सपनो याद आयो हो।
         
बो सपनै में देख्यो हो कै बो सचाणी ई ऊंठ बणग्यो है। पण अबखाई आ ही कै बो ऊंठ बण्यां उपरांत ई सोचै हो कै बो कांईं करै। अठी-उठी हांडता-हांडता ई उण नै कोई मारग कोनी लाध्यो, च्यारूंमेर रिंधरोही ही अर उण रै किणी सवाल रो जबाब बठै कठै लाधतो। बिंयां बो घोर अचरज में ई हो कै बो बैठो बैठायो इंयां ऊंठ किंयां बणग्यो। घर अर मा-जीसा री याद ई उण नै आई पण बो जाणै बेबस हो। उठ’र दो च्यार गडका काढ्यां ई उण नै निरांयत नीं बापरी तो आभै कानीं नाड़ ऊंची कर’र ठाह करण री कोसीस करी कै नाड़ कित्ती लांबी है। ओ भणाई रो असर हो कै बो नाड़ तुरत ही हेठै कर ली। उण नै भाई रा बोल चेतै आया कै ऊंठ री नसड़ी लांबी हुवै तो कांई बा बाढण तांई हुवै है।
           
जीसा कैवै हा- “चमगूंगा, इंयां चमक्योड़ै ऊंठ दांई अठी-उठी कांईं देखै। उठ, देख कित्तो सूरज माथै आयग्यो।" उण नै चेतै आयो कै रात सूवण सूं पैली ई जीसा उण नै झिडकता थकां कैयो हो कै "लड़धा, ऊंठ जित्तो हुयग्यो। अबै कीं काम-धंधो कर्‌या कर।"